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प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8582

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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ


सहालग के दिन आये। नित्य प्रति उसके द्वार पर से बरातें निकलतीं। मुहल्ले की स्त्रियाँ अपनी अटारियों पर खड़ी हो कर देखतीं। वर के रंग-रूप, आकर-प्रकार पर टिकाएँ होतीं, जागेश्वरी से भी बिना एक आँख देखे न रहा जाता। लेकिन कैलाशकुमारी कभी भूल कर भी इन जलूसों को न देखती। कोई बरात या विवाह की बात चलाता तो वह मुँह फेर लेती। उसकी दृष्टि में वह विवाह नहीं, भोली-भाली कन्याओं का शिकार था। बरातों को वह शिकारियों के कुत्ते समझती। यह विवाह नहीं बलिदान है।

तीज का व्रत आया। घरों की सफाई होने लगी। रमणियाँ इस व्रत की तैयारियाँ करने लगीं। जागेश्वरी ने भी व्रत का सामान किया। नयी-नयी साड़ियाँ मँगवायीं। कैलाशकुमारी के ससुराल से इस अवसर पर कपड़े, मिठाइयाँ और खिलौने आया करते थे। अबकी भी आये। यह विवाहिता स्त्रियों का व्रत है। इसका फल है पति का कल्याण। विधवाएँ भी इस व्रत का यथोचित रीति से पालन करती हैं। पति से उनका सम्बन्ध शारीरिक नहीं वरन् आध्यात्मिक होता है। उसका इस जीवन के साथ अंत नहीं होता, अनंत काल तक जीवित रहता है। कैलाशकुमारी अब तक यह व्रत रखती आयी थी। अबकी उसने निश्चय किया मैं व्रत न रखूँगी। माँ ने तो माथा ठोंक लिया। बोली–बेटी, यह व्रत रखना धर्म है।

कैलाशकुमारी–पुरुष भी स्त्रियों के लिए कोई व्रत रखते हैं?

जागेश्वरी–मर्दों में इसकी प्रथा नहीं है।

कैलाशकुमारी–इसलिए न कि पुरुषों को स्त्रियों की जान उतनी प्यारी नहीं होती जितनी स्त्रियों को पुरुषों की जान?

जागेश्वरी–स्त्रियाँ पुरुषों की बराबरी कैसे कर सकती हैं? उनका तो धर्म है अपने पुरुष की सेवा करना।

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