कहानी संग्रह >> प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह) प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ
कल मेरी ननद की विदाई थी। वह ससुराल जा रही थी। बिरादरी की कितनी ही महिलाएँ निमंत्रित थीं। वे उत्तम-उत्तम वस्त्राभूषण पहने कालीनों पर बैठी हुई थीं। मैं उनका स्वागत कर रही थी। निदान मुझे द्वार के निकट कई स्त्रियाँ भूमि पर बैठी हुई दिखायी दीं, जहाँ इन महिलाओं की जूतियाँ और स्लीपरें रक्खी हुई थीं। वे बेचारी भी विदाई देखने आयी थीं। मुझे उनका वहाँ बैठना अनुचित जान पड़ा। मैंने उन्हें भी ला कर कालीन पर बैठा दिया। इस पर महिलाओं में मटकियाँ होने लगी और थोड़ी देर में वे किसी-न-किसी बहाने से एक-एक करके चली गयीं। मेरे पति महाशय से किसी ने यह समाचार कह दिया। वे बाहर से क्रोध से भरे हुए आये और आँखे लाल करके बोले–यह तुम्हें क्या सूझी है, क्या हमारे मुँह में कालिख लगवाना चाहती हो? तुम्हें ईश्वर ने इतनी भी बुद्धि नहीं दी किसके साथ बैठना चाहिए। भले घर की महिलाओं के साथ नीच स्त्रियों को बैठा दिया! वे अपने मन में क्या कहती होंगी! तुमने मुझे मुँह दिखाने लायक नहीं रखा। छिः! छिः!!
मैंने सरल भाव से कहा–इससे महिलाओं का तो क्या अपमान हुआ? आत्मा तो सबकी एक ही है। आभूषणों से आत्मा तो ऊँची नहीं हो जाती!
पति महाशय ने होंठ चबा कर कहा–चुप भी रहो, बेसुरा राग अलाप रही हो। बस वही मुर्गी की एक टाँग। आत्मा एक है, परमात्मा एक है? न कुछ जानो न बूझो, सारे शहर में नक्कू बना दिया, उस पर और बोलने को मरती हो। उन महिलाओं की आत्मा को कितना दुःख हुआ, कुछ इस पर भी ध्यान दिया?
मैं विस्मित हो कर उनका मुँह ताकने लगी।
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