कहानी संग्रह >> प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह) प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ
आज प्रातःकाल उठी तो मैंने एक विचित्र दृश्य देखा। रात को मेहमानों की जूठी पत्तल, सकोरे, दोने आदि बाहर मैदान आदि में फेंक दिये गये थे। पचासों मनुष्य पत्तलों पर गिरे हुए उन्हें चाट रहे थे? हाँ, मनुष्य थे, वही मनुष्य जो परमात्मा के निज स्वरूप हैं। कितने ही कुत्ते भी उन पत्तलों पर झपट रहे थे, पर वे कंगले कुत्तों को मार-मार कर भगा देते थे। उनकी दशा कुत्तों से भी गयी-बीती थी। यह कौतुक देखकर मुझे रोमांच होने लगा, मेरी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। भगवान्! ये भी हमारे भाई-बहन हैं, हमारी आत्माएँ हैं। उनकी ऐसी शोचनीय, दीन दशा! मैंने तत्क्षण महरी को भेज कर उन मनुष्यों को बुलाया और जितनी पूरी-मिठाइयाँ मेहमानों के लिए रक्खी हुई थीं, सब पत्तलों में रखकर उन्हें दीं। महरी-थर-थर काँप रही थी, सरकार सुनेंगे तो मेरे सिर का बाल न छोड़ेंगे। लेकिन मैंने उसे ढाढस दिया, तब उसकी जान में जान आयी।
अभी ये बेचारे कंगले मिठाइयाँ खा ही रहे थे कि पति महाशय मुँह लाल किये हुए आये और अत्यंत कठोर स्वर में बोले–तुमने भंग तो नहीं खा ली? जब देखो, एक न एक उपद्रव खड़ा कर देती हो। मेरी तो समझ में नहीं आता कि तुम्हें क्या हो गया है। वे मिठाइयाँ डोमड़ों के लिए नहीं बनायी गयी थीं। इनमें घी, शक्कर मैदा लगा था, जो आजकल मोतिओं के मोल बिक रहा है। हलवाइयों को दूध के धोये रुपये मजदूरी के दिये गये थे। तुमने उठा कर सब डोमड़ों को खिला दीं। अब मेहमानों को क्या खिलाया जायगा? तुमने मेरी इज्जत बिगाड़ने का प्रण कर लिया है क्या?
मैंने गग्भीर भाव से कहा–आप व्यर्थ इतने क्रुद्ध होते हैं। आपकी जितनी मिठाइयाँ खिला दी हैं, वह मैं मँगवा दूँगी। यह नहीं देखा जाता कि कोई आदमी तो मिठाइयाँ खाय और कोई पत्तलें चाटे। डोमड़े भी तो मनुष्य ही हैं। उनके जीव में भी तो उसी…
स्वामी ने बात काट कर कहा–रहने भी दो, मरी तुम्हारी आत्मा! बस तुम्हारी ही रक्षा से आत्मा की रक्षा होगी। यदि ईश्वर की इच्छा होती कि प्राणिमात्र को समान सुख प्राप्त हो तो उसे सबको एक दशा में रखने से किसने रोका था? वह ऊँच-नीच का भेद होने ही क्यों देता है? जब उसकी आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो इतनी महान् सामाजिक व्यवस्था उसकी आज्ञा के बिना क्योंकर भंग हो सकती है। जब वह स्वयं सर्वव्यापी है तो वह अपने ही को ऐसे-ऐसे घृणोत्पादक अवस्थाओं में क्यों रखता है? जब तुम इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दे सकती तो उचित है कि संसार की वर्तमान रीतियों के अनुसार चलो। इन बेसिर-पैर की बातों से हँसी और निंदा के सिवाय और कुछ लाभ नहीं।
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