कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह ) प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ
बच्चे को उनके चरणों में सुला देती तो क्या उन्हें दया न आती? वह तो दयामय भगवान हैं, दीनों की रक्षा करते हैं, क्या मुझ पर दया न करते? यह सोचकर सुखिया का मन अधीर हो उठा। नहीं, अब विलम्ब करने का समय न था। वह अवश्य जायेगी और ठाकुर जी के चरणों पर गिर कर रोएगी। उस अबला के आशंकित हृदय को अब उसके सिवा और कोई अवलम्ब, कोई आसरा न था। मंदिर के द्वार बंद होंगे, तो वह ताले तोड़ डालेगी। ठाकुर जी क्या किसी के हाथों बिक गये हैं कि उन्हें बंद कर रक्खे।
रात के तीन बज गये थे। सुखिया ने बालक को कम्बल से ढाँक कर गोद में उठाया, एक हाथ में थाली उठायी और मंदिर की ओर चली। घर से बाहर निकलते ही शीतल वायु के झोंकों से उसका कलेजा काँपने लगा। शीत से पाँव शिथिल हुए जाते थे। उस पर चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। रास्ता दो फर्लांग से कम न था। पगडंडी वृक्षों के नीचे-नीचे गयी थी। कुछ दूर दाहिनी ओर एक पोखरा था, कुछ दूर बाँस की कोठियाँ में चुडैलों का अड्डा था। बायीं ओर हरे-भरे खेत थे। चारों ओर सन-सन हो रहा था, अंधकार साँय-साँय कर रहा था।
सहसा गीदड़ों के कर्कश स्वर से हुआँ-हुआँ करना शुरू किया। हाय! अगर कोई उसे एक लाख रुपया देता तो भी इस समय यहाँ न आती; पर बालक की ममता सारी शंकाओं को दबाये हुए थी। ‘हे भगवान् अब तुम्हारा ही आसरा है!’ यह जपती वह मंदिर की ओर चली जा रही थी।
मंदिर के द्वार पर पहुँचकर सुखिया ने जंजीर टटोल कर देखी। ताला पड़ा हुआ था। पुजारी जी बरामदे से मिली कोठरी में किवाड़ बन्द किये सो रहे थे। चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। सुखिया चबूतरे के नीचे से एक ईंट उठा लाई और जोर-जोर से ताले के ऊपर पटकने लगी। उसके हाथों में न जाने इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी थी।
दो ही तीन चोटों में ताला और ईंट दोनों टूटकर चौखट पर गिर पड़े। सुखिया ने द्वार खोल अन्दर जाना ही चाहती थी कि पुजारी किवाड़ खोलकर हड़बड़ाये हुए बाहर निकल आये और ‘चोर, चोर!’ का गुल मचाते हुए गाँव की ओर दौड़े। जाड़ों में प्रायः पहर रात रहे ही लोगों की नींद खुल जाती है। यह शोर सुनते ही कई आदमी इधर-उधर से लालटेनें लिए हुए निकल पड़े और पूछने लगे–कहाँ है? किधर गया?
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