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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


ये लोग निराश होकर लौटना ही चाहते थे कि अचानक बादशाह का आर्तनाद सुनाई दिया! कई हजार कंठों से आकाशभेदी ध्वनि निकली–हुजूर को खुदा सलामत रखे, हम फिदा होने को आ पहुँचे!

समस्त दल एक ही प्रबल इच्छा से प्रेरित होकर, बेगवती जलधारा की भाँति, घटना-स्थल की ओर दौड़ा। अशक्त लोग भी सशक्त हो गए। पिछड़े हुए लोग आगे निकल जाना चाहते थे। आगे के लोग चाहते थे कि उड़कर जा पहुँचें।

इन आदमियों की आहट पाते ही गोरों ने बंदूकें भरीं, और पचीस बंदूकों की बाढ़ सर हो गई। रक्षाकारियों में से कितने ही गिर पड़े; मगर कदम पीछे न हटे। वीर-मद ने और भी मतवाला कर दिया। एक क्षण में दूसरी बाढ़ आयी; कुछ लोग फिर वीरगति को प्राप्त हुए। लेकिन कदम आगे ही बढ़ते गए। तीसरी बाढ़ छूटनेवाली ही थी कि लोगों ने विद्रोहियों को जा लिया। गोरे भागे।

लोग बादशाह के पास पहुँचे। अद्भुत् दृश्य था। बादशाह रोशनुद्दौला की छाती पर सवार थे। जब गोरे जान लेकर भागे, तो बादशाह ने इस नर पिशाच को पकड़ लिया था, और उसे बलपूर्वक भूमि पर गिराकर उसकी छाती पर बैठ गए थे। अगर उनके हाथों में हथियार होता, तो इस वक्त रोशनुद्दौला की लाश फड़कती हुई दिखाई देती।

राजा बख्तावरसिंह आगे बढ़कर बादशाह को आदाब बजा लाये। लोगों की जय-ध्वनि से आकाश हिल उठा। कोई बादशाह के पैरों को चूमता, कोई उन्हें आशीर्वाद देता। रोशनुद्दौला का शरीर तो लात और घूसों का लक्ष्य बना हुआ था। कुछ बिगड़े दिल ऐसे भी थे, जो उसके मुँह पर थूकते भी संकोच न करते थे।

प्रातःकाल था। लखनऊ में आनंदोत्सव मनाया जा रहा था। बादशाही महल के सामने लाखों आदमी जमा थे। सब लोग बादशाह को यथायोग्य नजर देने आये थे। जगह-जगह गरीबों को भोजन कराया जा रहा था। शाही नौबतखाने में नौबत बज रही थी।

दरबार सजा। बादशाह हीरे-जवाहरात से जगमगाते, रत्नजटित आभूषणों से सजे हुए सिंहासन पर आ विराजे। रईसों और अमीरों ने नजरें गुजारी! शायरों ने कसीदे पढ़े। एकाएक बादशाह ने पूछा–राजा बख्तावरसिंह कहाँ हैं? कप्तान ने जवाब दिया–कैदखाने में।

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