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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


बादशाह ने उसी वक्त कई कर्मचारियों को भेजा कि राजा साहब को जेलखाने से इज्जत के साथ लावें। जब थोड़ी देर के बाद राजा ने आकर बादशाह को सलाम किया, वह तख्त से उतरकर उनसे गले मिले, और उन्हें अपनी दाहिनी ओर सिंहासन पर बैठाया। फिर दरबार में खड़े होकर उनकी सुकीर्ति और राज्य भक्ति की प्रशंसा करने के उपरांत अपने ही हाथों से उन्हें खिलअत पहनायी। राजा साहब के कुटुम्ब के प्राणी भी आदर और सम्मान के साथ विदा किए गए।

अंत को जब दोपहर के समय दरबार बर्खास्त होने लगा, तो बादशाह ने राजा साहब से कहा–आपने मुझ पर मेरी सल्तनत पर जो एहसान किया है, उसका सिला (पुरस्कार) देना मेरे इमकान से बाहर है। मेरी आपसे यही इल्तिजा (अनुरोध) है कि आप वजारत की कलमदान हाथ में लीजिए, और सल्तनत का, जिस तरह मुनासिब समझिए, इंतजाम कीजिए। मैं आपके किसी काम में दखल न दूँगा। मुझे एक गोशे में पड़ा रहने दीजिए। नमकहराम रोशन को भी मैं आपके सुपुर्द किए देता हूँ। आप जो सजा चाहे दें। मैं इसे कब का जहन्नुम भेज चुका होता; पर यह समझकर कि यह आपका शिकार है, इसे छोड़े हुए हूँ!

लेकिन बख्तावरसिंह बादशाह के उच्छृंखल स्वभाव से भलीभाँति परिचित थे। वह जानते थे, बादशाह की ये सदिच्छाएँ थोड़े ही दिनों की मेहमान हैं। मानव-चरित्र में आकस्मिक परिवर्तन बहुत कम हुआ करते हैं। दो चार महीने में दरबार का फिर वही रंग हो जायगा। इसलिए मेरा तटस्थ रहना ही अच्छा है। राज्य के प्रति मेरा जो कुछ कर्त्तव्य था, वह मैंने पूरा कर दिया। मैं दरबार से अलग रहकर निष्काम भाव से जितनी सेवा कर सकता हूँ, उतनी दरबार में रह कर कदापि नहीं कर सकता। हितैषी मित्र का जितना सम्मान होता है, स्वामिभक्त सेवक का उतना नहीं हो सकता।

वह विनीत भाव से बोले–हुजूर मुझे इस ओहदे से मुआफ रखें। मैं यों ही आपका खादिम हूँ। इस मंसब पर किसी लायक आदमी को मामूर फरमाइए (नियुक्त कीजिए)। मैं अक्खड़ राजपूत हूँ। मुल्की इंतजाम करना क्या जानूँ।

बादशाह–मुझे तो आपसे ज्यादा लायक और वफादार आदमी नजर नहीं आता।

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