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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है

गृह-दाह

सत्यप्रकाश के जन्मोत्सव में लाला देवप्रकाश ने बहुत रुपये खर्च किए थे। उसका विद्यारम्भ-संस्कार भी खूब धूम-धाम से किया गया। उसके हवाखाने को एक छोटी-सी गाड़ी थी। शाम को नौकर उसे टहलाने ले जाता। एक नौकर उसे पाठशाला पहुँचाने जाता; दिन-भर वहीं बैठा रहता और उसे साथ लेकर घर आता था। कितना सुशील, होनहार बालक था। गोरा मुखड़ा, बड़ी-बड़ी आँखें, ऊँचा मस्तक, पतले-पतले, लाल अधर, भरे हुए हाथ-पाँव। उसे देखकर सहसा मुँह से निकल पड़ता था–भगवान् इसे जिला दे, प्रतापी मनुष्य होगा। उसकी बाल-बुद्धि की प्रखरता पर लोगों को आश्चर्य होता था। नित्य उसके मुख-चंद्र पर हँसी खेलती रहती थी। किसी ने उसे हठ करते या रोते नहीं देखा।

वर्षा के दिन थे। देवप्रकाश पत्नी को लेकर गंगा-स्नान करने गये। नदी खूब चढ़ी थी, मानो अनाथ की आँखें हों। उनकी पत्नी निर्मला जल में बैठकर क्रीड़ा करने लगी। कभी आगे जाती, कभी पीछे जाती, कभी डुबकी मारती, कभी अंजुलियों से छींटे उड़ाती। देवप्रकाश ने कहा–अच्छा, अब निकलो, नहीं तो सरदी हो जायगी।

निर्मला ने कहा–कहो, तो मैं छाती तक पानी में चली जाऊँ?

देवप्रकाश–और, जो कहीं पैर फिसल जाय!

निर्मला–पैर क्या फिसलेगा!

यह कहकर छाती तक पानी में चली गई। पति ने कहा–अच्छा, अब आगे पैर न रखना। किंतु निर्मला के सिर पर मौत खेल रही थी। वह जल-क्रीड़ा नहीं–मृत्यु क्रीड़ा थी। उसने एक पग और आगे बढ़ाया और फिसल गई। मुँह से एक चीख निकली; दोनों हाथ सहारे के लिए ऊपर उठे और फिर जल-मग्न हो गए; एक पल में प्यासी नदी उसे पी गई। देवप्रकाश खड़े तौलिये से देह पोंछ रहे थे। तुरंत पानी में कूदे, साथ का कहार भी कूदा। दो मल्लाह भी कूद पड़े। सबने डुबकियाँ मारीं, टटोला; पर निर्मला का पता न चला। तब डोंगी मँगवायी गई। मल्लाहों ने बार-बार गोते मारे; पर लाश हाथ न आयी। देवप्रकाश शोक में डूबे हुए घर आये। सत्यप्रकाश किसी उपहार की आशा में दौड़ा। पिता ने गोद में उठा लिया; और बड़े यत्न करने पर भी अपनी सिसकी न रोक सके। सत्यप्रकाश ने पूछा–अम्माँ कहाँ हैं?

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