कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह ) प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है
दयाशंकर–क्या कहूँ मित्र, अत्यंत लज्जित हूँ। तुमसे सत्य कहता हूँ। आज से परदे का शत्रु हो गया। इस निगोड़ी प्रथा के बंधन ने ठीक होली के दिन ऐसा अनर्थ किय, जिसकी कभी सम्भावना न थी। अच्छा, अब बतलाओ बाजार से लाऊँ पूरियाँ? अभी तो ताजी मिल जाएँगी।
आनंदमोहन–बाजार का रास्ता तो मैंने भी देखा है। कष्ट न करो, जाकर बोर्डिंग-हाउस में खा लूँगा। रहे यह महाशय, मेरे विचार से इन्हें छेड़ना ठीक नहीं, पड़े-पड़े खर्राटे लेने दो। प्रातः काल चौंकेंगे, तो घर का मार्ग पकड़ेंगे।
दयाशंकर–तुम्हारा यों वापस जाना मुझे खल रहा है। क्या सोचा था, क्या हुआ। मजे ले-लेकर समोसे और कोफते खाते और गपड़चौथ मचाते। सभी आशाएँ मिट्टी में मिल गईं। ईश्वर ने चाहा, तो शीघ्र उनका प्रायश्चित करूँगा।
आनंदमोहन–मुझे तो इस बात की प्रसन्नता है कि तुम्हारा सिद्धान्त टूट गया। अब इतनी आज्ञा दो कि भाभीजी को धन्यवाद दे आऊँ।
दयाशंकर–शौक से जाओ।
आनंदमोहन–(भीतर जाकर) भाभीजी को साष्टांग प्रणाम कर रहा हूँ। यद्यपि आज के आकाशी भोज से मुझे दुराशा तो अवश्य हुई; किन्तु वह उस आनंद के सामने शून्य है, जो भाई साहब के विचार-परिवर्तन से हुआ है। आज एक दियासलाई ने जो शिक्षा प्रदान की है वह लाखों प्रामाणिक प्रमाणों से भी सम्भव नहीं है। इसके लिए मैं आपको सहर्ष धन्यवाद देता हूँ। अब से बंधुवर परदे के पक्षपाती न होंगे, यह मेरा अटल विश्वास है।
(पटाक्षेप)
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