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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


प्रेम– मैं तो यहाँ रोटियाँ बना लेता हूँ। दोपहर को दूध पी लिया करता हूँ।

प्रभा– तो यह कहो तुम योगाभ्यास कर रहे हो। अपनी रुचि का भोजन न मिले तो फिर जीवन का सुख ही क्या रहा?

प्रेम– क्या जाने, मैं तो रोटियों से ही सन्तुष्ट हो जाता हूँ। कभी-कभी तो मैं शाक या दाल भी नहीं बनाता। सूखी रोटियाँ बहुत मीठी लगती हैं। स्वास्थ्य के विचार से भी रूखा-सूखा भोजन उत्तम है।

प्रभा– यह सब नये जमाने के ढकोसले हैं। लोगों की पाचान शक्ति निर्बल हो गयी है। इसी विचार से अपने को तस्कीन दिया करते हैं। मैंने तो आजीवन चटपटा भोजन किया है, पर कभी कोई शिकायत नहीं हुई।

भोजन करने के बाद कुछ इधर-उधर की बातें होने लगीं। लाला जी थके थे, सो गये, किन्तु दोनों लड़कों को नींद नहीं आती थी। प्रेमशंकर बोले, क्यों तेजशंकर, क्या नींद नहीं आती? मैट्रिक में हो न? इसके बाद क्या करने का विचार है?

तेजशंकर– मुझे क्या मालूम? दादा जी की जो राय होगा, वही करूँगा?

प्रेम– और तुम क्या करोगे पद्मशंकर?

पद्म– मेरा तो पढ़ने में जी नहीं लगता। जी चाहता है, साधू हो जाऊँ।

प्रेम– (मुस्करा कर) अभी से?

पद्म– जी हाँ, खूब पहाड़ों पर विचरूँगा। दूर-दूर के देशों की सैर करूँगा। भैया भी तो साधु होने को कहते हैं।

प्रेम– तो तुम दोनों साधु हो जाओगे और गृहस्थी का सारा बोझ चाचा साहब के सिर पर छोड़ दोगे।

तेज– मैंने कब साधु होने को कहा पद्मू? झूठ बोलते हो।

पद्म– रोज तो कहते हो, इस वक्त लजा रहे हो।

तेज– बड़े झूठे हो।

पद्म– अभी तो कल ही कह रहे थे कि पहाड़ों पर जाकर योगियों से मन्त्र जगाना सीखेंगे।

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