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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


प्रेम– मन्त्र जगाने से क्या होगा?

पद्म– वाह! मन्त्र में इतनी शक्ति है कि चाहें तो अभी गायब हो जायँ, जमीन में गड़ा हुआ धन देख लें। एक मन्त्र तो ऐसा है कि चाहें तो मुरदों को जिला दें। बस, सिद्धि चाहिए। खूब चैन रहेगा। यहाँ तो बरसों पढ़ेंगे, तब जाकर कहीं नौकरी मिलेगी। और वहाँ तो एक मन्त्र भी सिद्ध हो गया तो फिर चाँदी ही चाँदी है।

प्रेम– क्यों जी तेजू, तुम भी इन मिथ्या बातों पर विश्वास करते हो?

तेज– जी नहीं, यह पद्म यों ही बाही-तबाही बकता फिरता है, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि आदमी मन्त्र जगाकर बड़े-बड़े काम कर सकता है। हाँ, डर न जाये, नहीं तो जान जाने का डर रहता है।

प्रेम– यह सब गपोड़ा है। खेद है, तुम विज्ञान पढ़कर इन गपोड़ों पर विश्वास करते हो। संसार में सफलता का सबसे जगाता हुआ मन्त्र अपना उद्योग, अध्यवसाय और दृढ़ता है, इसके सिवा और सब मन्त्र झूठे हैं।

दोनों लड़कों ने इसका कुछ उत्तर न दिया। उसके मन में मन्त्र की बात बैठ गयी थी। और तर्क द्वारा उन्हें कायल करना कठिन था।

इनके सो जाने के बाद प्रेमशंकर ने सन्दूकची खोलकर देखा। गहने सभी सोने के थे। रुपये गिने तो पूरे तीन हजार थे। इस समय प्रेमशंकर के सम्मुख श्रद्धा एक देवी का रूप में खड़ी मालूम होती थी। उसकी मुखश्री एक विलक्षण ज्योति से प्रदीप्त थी। त्याग और अनुराग की विशाल मूर्ति थी, जिसके कोमल नेत्रों में भक्ति और प्रेम की किरणें प्रस्फुटित हो रही थीं। प्रेमशंकर का हृदय विह्वल हो गया। उन्हें अपनी निष्ठुरता पर बड़ी ग्लानि उत्पन्न हुई। श्रद्धा की भक्ति के सामने अपनी कटुता और अनुदारता अत्यन्त निन्द्य प्रतीत होने लगी। उन्होंने संदूकची बन्द करके खाट के नीचे रख दी और लेटे तो सोचने लगे, इन गहनों को क्या करूँ? कुल सम्पत्ति पाँच हजार से कम की नहीं है। इसे मैं ले लूँ तो श्रद्धा निरवलम्ब हो जायेगी। लेकिन मेरी दशा सदैव ऐसी ही थोड़े रहेगी। अभी ऋण समझकर ले लूँ, फिर कभी सूद समेत चुका दूँगा। पचीस वर्ष ऊसर लूँ तो दो-ढाई हजार में तय हो जाये। एक हजार खाद डालने और रेह निकालने में लग जायेंगे। एक हजार में बैलों की गोइयाँ और दूसरी सामग्रियाँ आ जायेंगी। दस बीघे में एक सुन्दर बाग लगा दूँ, पन्द्रह बीघे में खेती करूँ। दो साल तो चाहे उपज कम हो, लेकिन आगे चलकर दो-ढाई हजार वार्षिक की आय होने लगेगी। अपने लिए मुझे २०० रुपये साल भी बहुत हैं, शेष रुपये अपने जीवनोद्देश्य के पूरे करने में लगेंगे। सम्भव है, तब तक कोई सहायक भी मिल जाये। लेकिन उस दशा में कोई सहायता भी न करे तो मेरा काम चलता रहेगा। हाँ, एक बात का ध्यान ही न रहा। मैं यह ऊसर ले लूँ तो फिर इस गाँव में गोचर भूमि कहाँ रहेगी? यह ऊसर तो यहाँ के पशुओं का मुख्य आधार है। नहीं इसके लेने का विचार छोड़ देना चाहिए। अब तो हाथ में रुपये आ गये हैं। कहीं न कहीं जमीन मिल ही जायेगी। हाँ, अच्छी जमीन होगी तो इतने रुपयों में दस बीघे से ज्यादा न मिल सकेगी। दस बीघे में मेरा काम कैसे चलेगा?

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