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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


प्रेमशंकर इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए थे। मूसलाधार मेघ बरस रहा था। सहसा उनके कानों में बादलों के गर्जन की-सी आवाज आने लगी, लेकिन जब देर तक इस ध्वनि का तार न टूटा, मानो किसी बड़े पुल पर रेलगाड़ी चली जा रही हो। और थोड़ी देर में गाँव की ओर से आदमियों के चिल्लाने और रोने की आवाजें आने लगीं, तो वह घबड़ाकर उठे और गाँव की तरफ नजर दौड़ायी। गाँव में हलचल मची हुई थी। लोग हाथों में सन और अरहर के डण्ठलों की मशालें लिए इधर-उधर दौड़ते फिरते थे। कुछ लोग मशालें लिये नदी की तरफ दौड़ते जाते थे। एक क्षण में मशालों का प्रतिबिम्ब-सा दीखने लगा, जैसे गाँव में पानी लहरें मार रहा हो। प्रेमशंकर समझ गये कि बाढ़ आ गयी।

अब विलम्ब करने का समय न था वह तुरन्त गाँव की तरफ चले। लेकिन थोड़ी ही दूर चलकर वह घुटनों तक पानी में पहुँचे। बहाव में इतना वेग था कि उनके पाँव मुश्किल से संभल सकते थे। कई बर वह गड्ढो में गिरते बचे। जल्दी में जल थाहने के लिए कोई लकड़ी भी न ले सके थे। जी चाहता था कि गाँव में उड़कर जा पहुँचूँ और लोगों की यथासाध्य मदद करूँ; लेकिन यहाँ एक-एक पग रखना दुस्तर था। चारों तरफ घना अन्धेरा, ऊपर मूसलाधार वर्षा, नीचे वेगवती लहरों का सामना, राह-बाट का कहीं पता नहीं। केवल मशालों को देखते चले जाते थे। कई बार घरो के गिरने का धमाका सुनायी दिया। गाँव के निकट पहुँचे तो हाहाकार मचा हुआ था। गाँच के समस्त प्राणी– युवा, वृद्ध, बाल मन्दिर के चबूतरे पर खड़े यह विध्वंसकारी मेघलीला देख रहे थे। प्रेमशंकर को देखते ही लोग चारों ओर आकर खड़े हो गये। स्त्रियाँ रोने लगीं।

प्रेमशंकर– बाढ़ क्या अबकी ही आयी है या और भी कभी आयी थी?

भवानीसिंह– हर दूसरे-तीसरे साल आ जाती है। कभी-कभी तो साल में दो-दो बेर आ जाती है।

प्रेमशंकर– इसके रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया?

भवानीसिंह– इसका एक ही उपाय है। नदी के किनारे बाँध बना दिया जाये। लेकिन कम से कम तीन हजार का खर्च है, वह हमारे किये नहीं हो सकता। इतनी सामर्थ्य ही नहीं। कभी बाढ़ आती है, कभी सूखा पड़ता है। धन कहाँ से आये?

प्रेमशंकर– ज़मींदार से इस विषय में तुम लोगों ने कुछ नहीं कहा?

भवानी– उनके कभी दर्शन ही नहीं होते; किससे कहें? सेठ जी ने यह गाँव उन्हें पिण्ड-दान में दे दिया था; बस, आप तो गया जी में बैठे रहते हैं। साल में दो बार उनका मुंशी आकर लगान वसूल कर ले जाता है। उससे कहो तो कहता है, हम कुछ नहीं जानते, पण्डा जी जानें। हमारे सिर पर चाहे जो पड़े, उन्हें अपने काम से काम है।

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