सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
ज्वाला– मैं नतीजे को सोचकर कातर हो जाता हूँ। बाबू ज्ञानशंकर का फँस जाना निश्चित है। मुमकिन है, जेल की नौबत आये। वह आत्मिक कष्ट मेरे लिए इससे कहीं असह्य होगा। जिससे बरसों तक भ्रातृवत् प्रेम रहा, जिससे दाँत काटी रोटी थी उससे मैं इतना कठोर नहीं हो सकता। मैं तो इस विचार-मात्र ही से काँप उठता हूँ। इन आक्षेपों से मेरी केवल इतनी हानि होगी कि यहाँ से तबदील हो जाऊँगा या अधिक से अधिक पदच्युत हो जाऊँगा, परन्तु ज्ञानशंकर तबाह हो जायेंगे। मैं अपने दुरावेशों को पूरा करने के लिए उनके परिवार का सर्वनाश नहीं कर सकता।
प्रेमशंकर ने ज्वालासिंह को श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा। इस आत्मोत्सर्ग के सामने उनका सिर झुक गया, हृदय सदनुराग से परिपूर्ण हो गया। ज्वालासिंह के पैरों पर गिर पड़े और सजल नेत्र होकर बोले, भाई जी, आपको परमात्मा ने देव-स्वरूप बनाया है। मुझे अब तक न मालूम था कि आपके हृदय में ऐसे पवित्र और निर्मल भाव छिपे हुए हैं।
ज्वालासिंह झिझककर पीछे हट गये और बोले– भैया, ईश्वर के लिए वह अन्याय न कीजिए। मैं तो अपने को इस योग्य भी नहीं पाता कि आपके चरणारविन्द अपने माथे से लगाऊँ। आप मुझे काँटों में घसीट रहे हैं।
प्रेमशंकर– यदि आपकी इच्छा हो तो मैं उन्हीं पत्रों में इन आक्षेपों का प्रतिवाद कर दूँ।
ज्वालासिंह वास्तव में प्रतिवाद की आवश्यकता को स्वीकार करते थे, किन्तु इस भय से कि कहीं मेरी सम्मति मुझे उस उच्च पद से गिरा न दे, जो मैंने अभी प्राप्त किया है, इनकार करना ही उचित जाना पड़ा। बोले– जी नहीं, इसकी भी जरूरत नहीं।
प्रेमशंकर के चले जाने के बाद ज्वालासिंह को खेद हुआ कि प्रतिवाद का ऐसा उत्तम अवसर हाथ से निकल गया। अगर इनके नाम से प्रतिवाद निकलता तो वह सारा मिथ्या-जाल मकड़ी के जालों के सदृश कट जाता। पर अब तो जो हुआ सो हुआ। एक साधु पुरुष के हृदय में स्थान तो मिल गया।
प्रेमशंकर घर तक जाने का विचार करके हाजीपुर से चले थे। महीनों से घर से कुशल-समाचार न मिला था, लेकिन यहाँ से उठे तो नौ बज गये थे, जेठ की लू चलने लगी थी। घर से हाजीपुर लौट जाना दुस्तर था। इसलिए किसी दूसरे का इरादा करके लौट पड़े।
लेकिन ज्ञानशंकर को चैन कहाँ। उन्हें ज्यों ही मालूम हुआ कि भैया देहात से लौट आये है, वह उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो गये। ज्वालासिंह को उनकी नजरों में गिराना आवश्यक था। सन्ध्या समय था। प्रेमशंकर अपने झोंपड़े के सामने वाले गमलों में पानी दे रहे थे। कि ज्ञानशंकर आ पहुँच और बोले– क्या मजूर कहीं चला गया है क्या?
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