सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
प्रेमशंकर– मैं भी तो मजूर ही हूँ। घर पर सब कुशल है न?
ज्ञान– जी हाँ, सब आपकी दया है। आपके यहाँ तो कई हलवाहे होंगे। क्या वह इतना भी नहीं कर सकते कि इन गमलों को सींच दें? आपको व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ता है।
प्रेम– मुझे उनसे काम लेने का कोई अधिकार नहीं है। वह मेरे निज के नौकर नहीं है। मैं तो केवल यहाँ का निरीक्षक हूँ और फिर मैंने अमेरिका में तो हाथों से बर्तन धोये हैं। होटलों की मेजें साफ की हैं, सड़कों पर झाड़ू दी है, यहाँ आकर मैं कोई और तो नहीं हो गया। मैंने यहाँ कोई खिदमतगार नहीं रखा है। अपना सब काम कर लेता हूँ।
ज्ञान– तब तो आपने हद कर दी। क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप क्यों अपनी आत्मा को इतना कष्ट देते हैं।
प्रेम– मुझे कोई कष्ट नहीं होता। हाँ, इसके विरुद्ध आचरण करने में अलबत्ता कष्ट होगा। मेरी आदत ऐसी ही पड़ गयी है।
ज्ञान– यह तो आप मानते हैं कि आत्मिक उन्नति की भिन्न कक्षाएँ होती हैं।
प्रेम– मैंने इस विषय में कभी विचार नहीं किया और न अपना कोई सिद्धान्त स्थिर कर सकता हूँ। उस मुकदमे की अपील अभी दायर की या नहीं?
ज्ञान– जी हाँ दायर कर दी। आपने ज्वालासिंह की सज्जनता देखी? यह महाशय मेरे बनाये हुए हैं। मैंने ही इन्हें रटा-रटा कर किसी तरह बी.ए. कराया। अपना हर्ज करता था, पर पहले इनकी कठिनाइयों को दूर कर देता था। इस नेकी का इन्होंने यह बदला दिया। ऐसा कृतघ्न मनुष्य मैंने नहीं देखा।
प्रेम– पत्रों में उनके विरुद्ध जो लेख छपे थे। वह तुम्हीं ने लिखे थे?
ज्ञान– जी हाँ! जब वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, तब मैं क्यों उनसे रियायत करूँ?
प्रेम– तुम्हारा व्यव्हार बिलकुल न्याय-विरुद्ध था। उन्होंने जो कुछ किया, न्याय समझ कर किया। उनका उद्देश्य तुम्हें नुकसान पहुँचाना न था। तुमने केवल उनका अनिष्ट करने के लिए यह आक्षेप किया।
ज्ञान– जब आपस में अदावत हो गयी तब सत्यता का विववेचन कौन करता है? धर्म-युद्ध का समय अब नहीं रहा।
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