लोगों की राय

सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

370 पाठक हैं

‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


गायत्री– यह झंझट नहीं है। यह मेरी हार्दिक लालसा है। अब मुझे कई बड़े-बड़े अनुष्ठान करने हैं। यह मेरे जड़ाऊ कंगन हैं। यह विद्या के भेंट हैं, कल इसका पारसल भेज दीजिए और ५०० रुपये नकद।

ज्ञान– (सिर झुकाकर) इसकी क्या जरूरत है? कौन सा मौका है?

गायत्री– और कौन सा मौका है? मेरे लड़के-लड़कियाँ भी तो नहीं हैं कि उनके विवाह में दिल के अरमान निकालूँगी। यह कंगन उसे पसन्द भी था। पिछले साल इटली से मँगवाया था। अब आपसे भी मेरी एक प्रार्थना है। आप मुझसे छोटे हैं। आप भी अपना हक वसूल कीजिए और निर्दयता के साथ।

ज्ञानशंकर ने शर्माते हुए कहा– मेरे लिए आपकी कृपा-दृष्टि ही काफी है। इस अवसर पर मुझे जो कीर्ति प्राप्त हुई है वही मेरा इनाम है।

गायत्री– जी नहीं, मैं न मानूँगी। इस समय संकोच छोड़िए और सूद खाने वालों की भाँति कठोर बन जाइए। यह आपकी कलम है, जिसने मुझे इस पद पर पहुँचाया है, नहीं तो जिले में मेरी जैसी कितनी ही स्त्रियाँ हैं, कोई उनकी बात भी नहीं पूछता। इस कलम की यथायोग्य पूजा किये बिना मुझे तस्कीन न होगी।

ज्ञान– इसकी जरूरत तो तब होती जब मुझे उससे कम आनन्द प्राप्त होता, जितना आपको हो रहा है।

गायत्री– मैं यह तर्क-वितर्क एक भी न सुनूँगी। आप स्वयं कुछ नहीं कहते इसलिए आपकी ओर से मैं ही कहे देती हूँ। आप अपने लिए बनारस में अपने घर से मिला हुआ एक सुन्दर बँगला बनवा लीजिए। चार कमरे हों और चारों तरफ बरामदों पर विलायती खपरैल हों और कमरों पर लदाव की छत। छत पर बरासात के लिए एक हवादार कमरा बना लीजिए। खुश हुए?

ज्ञानशंकर के कृतज्ञतापूर्ण भाव से देखकर कहा, खुश तो नहीं हूँ अपने ऊपर ईर्ष्या होती है।

गायत्री– बस, दीपमालिका से आरम्भ कर दीजिए। अब बतलाइए, माया को क्या दूँ?

ज्ञान– माया तो अभी कुछ चाहिए। उसका इनाम अपने पास अमानत रहने दीजिए।

गायत्री– आप नौ नकद न तेरह उधार वाली मसल भूल जाते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book