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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


गायत्री– आप इस सम्बन्ध में लखनऊ जाकर पिता जी से मिलिए। अपने बड़े भाई साहब से राय लीजिए।

प्रेमशंकर की चर्चा सुनते ही ज्ञानशंकर के तेवरों पर बल पड़ गये। उनकी ओर से इनके हृदय में गाँठ-सी पड़ गयी थी। बोले, राय साहब से सम्मति लेनी तो आवश्यक है, वह बुद्धिमान् हैं, लेकिन भाई साहब को मैं कदापि इस योग्य नहीं समझता। जो मनुष्य इतना विचारहीन हो कि अपनी स्त्री को त्याग दे, मिथ्या सिद्धान्त-प्रेम के घमण्ड में बिरादरी का अपमान करे, और अपनी असाधुता को प्रजा-भक्ति का रंग देकर भाई की गर्दन पर छुरी चलाने में संकोच न करे, उससे इस धार्मिक विषय में कुछ पूछना व्यर्थ है। उनकी बदौलत मेरी एक हजार सलाना की हानि हो गयी और तीन साल गुजर जाने पर भी गाँव में शान्ति नहीं होने पायी, बल्कि उपद्रव बढ़ता ही चला जाता है। श्रद्धा इन्हीं अविचारों के कारण उनके घृणा करती है।

गायत्री– मेरी समझ में तो यह श्रद्धा का अन्याय है। जिस पुरुष के साथ विवाह हो गया, उसके साथ निर्वाह करना प्रत्येक कर्मनिष्ठ नारी का धर्म है।

ज्ञान– चाहे पुरुष नास्तिक और विधर्मी हो जाये?

गायत्री– हाँ, मैं तो ऐसा ही समझती हूँ। विवाह स्त्री-पुरुष के अस्तित्व को संयुक्त कर देता है। उनकी आत्माएँ एक-दूसरे में समाविष्ट हो जाती हैं।

ज्ञान– पुराने जमाने में लोगों के विचार ऐसे रहे हों, पर नया युग इसे नहीं मानता। वह स्त्री को सम्पूर्ण स्वाधीन ठहराता है। वह मनसा, वाचा कर्मणा किसी के अधीन नहीं है। परमात्मा से आत्मा का जो घनिष्ठ सम्बन्ध है उसके सामने मानवकृत सम्बन्ध की कोई हस्ती नहीं हो सकती। पश्चिम के देशों में आये दिन धार्मिक मतभेद के कारण तलाक होते रहते हैं।

गायत्री– उन देशों की बात न चलाइए, वहाँ के लोग विवाह को केवल सामाजिक बन्धन समझते हैं। आपने ही एक बार कहा था कि वहाँ कुछ ऐसे लोग भी हैं जो विवाह संस्कार को मिथ्या समझते हैं। उनके विचार में स्त्री-पुरुषों की अनुमति ही विवाह है, लेकिन भारतवर्ष में कभी इन विचारों का आदर नहीं हुआ।

ज्ञान– स्मृतियों में तो इसकी व्यवस्था स्पष्ट रूप से की गयी है।

गायत्री– की गयी है, मुझे मालूम है, लेकिन अभी उसका प्रचार नहीं हुआ। और क्यों होता जब कि हमारे यहाँ स्त्री-पुरुष दोनों एक साथ रहकर मतानुसार परमात्मा की उपासना कर सकते हैं पुरुष वैष्वण है, स्त्री शैव है पुरुष आर्य समाज में हैं, स्त्री अपने पुरातन सनातन धर्म को मानती है, वह ईश्वर को भी नहीं मानता, स्त्री ईंट और पत्थरों तक की पूजा-अर्चना करती है। लेकिन इन भेदों के पीछे पति-पत्नी में अलगाव नहीं हो जाता। ईश्वर वह कुदिन यहाँ न लाये जब लोगों में विचार स्वातन्त्र्य का इतना प्रकोप हो जाये।

ज्ञान– इसका कारण यही है कि हम भीरु प्रकृति के हैं, यथार्थ का सामना न करके मिथ्या आदर्श-प्रेम की आड़ में अपनी कमजोरी छिपाते हैं।

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