लोगों की राय

सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

370 पाठक हैं

‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


किन्तु जो मंसूबे बाँधकर यहाँ आये थे वे अभी तक होते नजर न आते थे। गायत्री उनका लिहाज करती थी, प्रत्येक विषय में उन्हीं की सलाह पर चलती थी, लेकिन इसके साथ ही वह उनसे कुछ खिंची रहती थी। उन्हें प्रायः नित्य ही उससे मिलने का अवसर प्राप्त होता था। वह इलाके के दूरवर्ती स्थानों से भी मोटर पर लौट आया करते थे, लेकिन यह मुलाकात कार्य-सम्बन्धी होती थी। यहाँ प्रेम-दर्शन का मौका न मिलता, दो-चार लौंडियाँ खड़ी ही रहतीं, निराश होकर लौट आते थे। वह आग जो उन्होंने हाथ सेंकने के लिए जलायी थी, अब उनके हृदय को भी गरम करने लगी थी। उनकी आँखें गायत्री के दर्शनों की भूख रहती थीं, उसका मधुर भाषण सुनने के लिए विकल। यदि किसी दिन मजबूर होकर उन्हें देहात में ठहरना पड़ता या किसी कारण गायत्री से भेंट न होती तो उस अफीमची की भाँति अस्थिर चित्त हो जाते थे, जिसे समय पर अफीम न मिले।

एक दिन गायत्री ने प्रातःकाल ज्ञानशंकर को अन्दर बुलाया। आजकल मकान की सफाई और सुफेदी हो रही थी। दीपावलिका का उत्सव निकट था। गायत्री बगीचे में बैठी हुई चिड़ियों को दाना चुना रही थी। कोई लौड़ी न थी। ज्ञानशंकर का हृदय चिड़ियों की भाँति फुदकने लगा। आज पहली बार उन्हें ऐसा अवसर मिला। गायत्री ने उन्हें देखकर कहा, आज आपको बहुत जरूरी काम तो नहीं है? मैं आपसे एक खास मामले में कुछ राय लेना चाहती हूँ।

ज्ञानशंकर– कुछ हिसाब-किताब देखना था, लेकिन कोई ऐसा जरूरी काम नहीं है।

गायत्री– मेरे स्वामी ने अन्तिम समय मुझे वसीयत की थी कि अपने बाद यह इलाका धर्मार्पण कर देना और इसकी निगरानी और प्रबन्ध के लिए ट्रस्ट बना देना। मेरी अब इच्छा होती है कि उनकी वसीयत पूरी कर दूँ। जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं, न जाने कब सन्देश आ पहुँचे। कहीं बिना लिखा-पड़ी किये मर गयी तो रियासत का बाँट बखरा हो जायेगा और वसीयत पानी की रेखा की भाँति मिट जायगी। मैं चाहती हूँ कि आप इस समस्या को हल कर दें इससे अच्छा अवसर फिर न मिलेगा।

ज्ञानशंकर की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। उनकी अभिलाषाओं के त्रिभुज का आधार ही लुप्त हुआ जाता था। बोले, वसीयत लेख-बद्ध हो गयी है?

गायत्री– उनकी इच्छा मेरे लिए हजारों लेखों से अधिक मान्य है। यदि उन्हें मेरी फ़िक्र न होती तो अपने जीवनकाल में ही रियासत को धर्मार्पण कर जाते। केवल मान रखने के लिए उन्होंने इस विचार को स्थगित कर दिया। जब उन्हें मेरा इतना लिहाज था तो मैं भी उनकी इच्छा को देववाणी समझती हूँ

ज्ञानशंकर समझ गये कि इस समय कूटनीति से काम लेने की आवश्यकता है। अनुमोदन से विरोध का काम लेना चाहिए। बोले, अवश्य लेकिन पहले यह निश्चय कर लेना चाहिए कि परमार्थ का स्वरूप क्या होगा?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book