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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्ञान– यही वही प्रथा की गुलामी है, जिसका आप बखान करती हैं। बहिन के घर जाने का साधारणतः रिवाज नहीं है? वह इसे क्योंकर तोड़ सकती है! कदाचित् इसी कारण आप भी वहाँ नहीं जा सकतीं।

गायत्री– (लजाकर) मैं इन बातों का परवाह नहीं करती, लेकिन यहाँ तो आप देखते हैं सिर उठाने की फुरसत नहीं।

ज्ञान– यही बहाना वह भी कर सकती है।

गायत्री– खैर वह न आये न सही, लेकिन माया को जरूर लाइएगा और वहाँ का समाचार लिखते रहिएगा। अवकाश मिलते ही चले आइएगा।

गायत्री का अन्तिम वाक्य ऐसा अकांक्षा-सूचक था कि ज्ञानशंकर के हृदय में गुदगुदी सी पैदा हो गयी। उन्हें यहाँ रहते तीन साल से ऊपर हो गये थे, कितनी ही बार बनारस आये, लेकिन गायत्री ने कभी लौटने के लिए ऐसा भावपूर्ण आग्रह न किया था। दिल ने कहा, शायद मेरा जादू कुछ असर करने लगा। बोले, तब भी दो सप्ताह से कम क्या लगेंगे।

गायत्री चिन्तित स्वर से बोली– दो सप्ताह?

ज्ञानशंकर को अपने विचार की पुष्टि हो गयी। नौ बजे वह डाकगाड़ी से रवाना हुए और ५ बजते-बजते बनारस पहुँच गये।

२५

जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पानी बरसता। फाल्गुन के महीने में एक दिन ओले पड़ गये। सारी खेती नष्ट हो गयी। कब गाँववालों के लिए कोई सहारा न था। बिसेसर साह ने भी ज़मींदार के मुकाबले में सहायता देने से इनकार किया। स्त्रियों के गहने पहले ही निकल चुके थे। अब सुक्खू चौधरी के सिवा और कोई न था। जो अपील की पैरवी कर सकता था। लोग भाग्य पर भरोसा किये बैठे थे। किसी की दशा में प्रेमशंकर के भेजे हुए रुपयों ने बड़ा काम किया। मुर्दे जाग पड़े। कादिर खाँ दृढ़ प्रतिज्ञ होकर उठ खड़ा हुआ और जी तोड़कर मुकदमे की पैरवी करने लगा। लेकिन किसानों की नैतिक विजय वास्तविक पराजय से कम न थी। ज्ञानशंकर असामियों को इस दुस्साहस का दंड देने के लिए उधार खाए बैठे थे। अभी गाँव के लोग झोपड़ी में ही थे कि गौस खाँ अपने तीनों चपरासियों के लिए हुए आए और झोंपड़े में आग लगवा दी। बाग की भूमि ज़मींदार की थी। असामियों को वहाँ झोपड़े बनवाने का कोई अधिकार न था। चपरासियों में दो बिलकुल नये थे– फैज और कर्तार। दोनों लकड़ी चलाने में कुशल थे, कई बार सजा पाए हुए। उनके हृदय में दया और शील का नाम न था पुराने आदमियों में केवल बिन्दा महाराज अपनी कुटिल नीति की बदौलत रह गये थे। अभी तक ताऊन की ज्वाला शान्त न हुई थी कि लोगों को विवश होकर बस्ती में आना पड़ा, जिसका फल यह हुआ कि दूसरे ही दिन ठाकुर डपटसिंह प्लेग के झोंके में आ गये और कल्लू अहीर मरते-मरते बच गया। जितनी आरजू मिन्नत हो सकती थी वह सब्र की गयी, लेकिन अत्याचारियों पर कुछ असर न हुआ। झपट तो मर जाने के लिए तैयार हुआ। लट्ठ चलाकर बोला, गौस को आज जीता न छोड़ूँगा। अब क्या भय है? लेकिन कादिर खाँ उसके पैरों पर गिर पड़ा और समझा-बुझाकर घर लौटाया।

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