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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


लखनपुर में एक बहुत बड़ा तालाब था। गाँव भर के पशु उसमें पानी पीते थे। नहाने-धोने का काम भी उससे चलता था।

जून का महीना था, कुओं का पानी पाताल तक चला गया था। आस-पास के सब गढ़े और तालाब सूख गये थे। केवल इसी बड़े तालाब में पानी रह गया था। ठीक उसी समय गौस खाँ ने उस तालाब का पानी रोक दिया। दो चपरासी किनारे आकर डट गये और पशुओं को मार-मार कर भगाने लगे। गाँव वालों ने सुना तो चकराये। क्या सचमुच ज़मींदार तालाब का पानी भी बन्द कर देगा। यह तालाब सारे गाँव का जीवन स्रोत था। लोगों को कभी स्वप्न में भी अनुमान न हुआ था कि ज़मींदार इतनी जबरदस्ती कर सकता है, उसका चिरकाल से इस पर अधिकार था। पर आज उन्हें ज्ञात हुआ कि इस जल पर हमारा स्वत्व नहीं है। यह ज़मींदार की कृपा थी कि वह इतने दिनों तक चुप रहा; किन्तु चिरकालीन कृपा भी स्वत्व का रूप धारण कर लेती हैं। गाँव के लोग तुरन्त तालाब के तट पर जमा हो गये और चपरासियों से वाद-विवाद करने लगे। कादिर खाँ ने देखा बात बढ़ा चाहती है तो वहाँ से हट जाना उचित समझा। जानते थे कि मेरे पीछे और लोग टल जायेंगे। किन्तु दो ही चार पग चले थे कि सहसा सुक्खू चौधरी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोले, कहाँ जाते हो कादिर भैया! जब तक यहाँ कोई निबटारा न हो जाय, तुम जाने न पाओगे। जब जा-बेजा हर एक मामले में इसी तरह दबना है, तो गाँव से सरगना काहे को बनते हो?

कादिर खाँ– तो क्या कहते हो लाठी चलाऊँ?

सुक्खू– और लाठी है किस दिन के लिए?

कादिर– किसके बूते पर लाठी चलेगी? गाँव में रह कौन गया है? अल्लाह ने पट्ठो को चुन लिया।

सुक्खू– पट्ठे नहीं हैं न सही, बूढ़े तो हैं? हम लोग की जिन्दगानी किस रोज काम आयेगी?

गौस खाँ को जब मालूम हुआ कि गाँव के लोग तालाब के तट पर जमा हैं तो वह भी लपके हुए आ पहुँचे और गरजकर बोले, खबरदार! कोई तालाब की तरफ कदम न रखे। सुक्खू आगे बढ़ आये और कड़ककर बोले, किसकी मजाल है जो तालाब का पानी रोके! हम और हमारे पुरुखा इसी से अपना निस्तार करते चले आ रहे हैं। ज़मींदार नहीं ब्रह्मा आकर कहें तब भी इसे न छोड़ेंगे, चाहे इसके पीछे सरबस लुट जाये।

गौस खाँ ने सुक्खू चौधरी को विस्मित नेत्रों से देखा और कहा, चौधरी, क्या इस मौके पर तुम भी दगा दोगे? होश में आओ।

सुक्खू– तो क्या आप चाहते हैं कि जमींदारी की खातिर अपने हाथ कटवा लूँ? पैरों में कुल्हाड़ी मार लूँ? खैरख्वाही के पीछे अपना हक नहीं छोड़ सकता।

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