सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
करतार चपरासी ने हँसी करते हुए कहा, अरे तुमका का परी है, है कोऊ आगे-पीछे? चार दिन में हाथ पसारे चले जैहो। ई ताल तुमरे सँग न जाई।
वृद्धाजन मृत्यु का व्यंग्य नहीं सह सकते। सुक्खू ऐंठकर बोले– क्या ठीक है कि हम ही पहले चले जायेंगे? कौन जाने हमसे पहले तुम्हीं चले जाओ। जो हो, हम तो चले जायेंगे, पर गाँव तो हमारे साथ न चला जायेगा?
गौस खाँ– हमारे सलूकों का यही बदला है?
सुक्खू– आपने हमारे साथ सलूक किये हैं तो हमने भी आपके साथ सूलक किये हैं और फिर कोई सलूक के पीछे अपने हक-पद को नहीं छोड़ सकता।
फैजू– तो फौजदारी करने का अरमान है?
सुक्खू– तो फौजदारी क्यों करें, क्या हाकिम का राज नहीं है? हाँ, जब हाकिम न सुनेगा तो जो तुम्हारे मन में है वह भी हो जायेगा। यह कहकर सुक्खू ताल के किनारे से चले आये और उसी वक्त बैलगाड़ी पर बैठकर अदालत चले। दूसरे दिन दावा दायर हो गया।
लाला मौजीलाल पटवारी की साक्षी पर हार-जीत निर्भर थी। उनकी गवाही गाँव वालों के अनुकूल हुई। गौस खाँ ने उसे फोड़ने में कोई कसर न उठा रखी, यहाँ तक कि मार-पीट की भी धमकी दी। पर मौजीलाल का इकलौता बेटा इसी ताऊन में मर चुका था। इसे वह अपने पूर्व संचित पापों का फल समझते थे। सन्मार्ग से विचलित न हुए। बेलाग साक्षी दी। सुक्खू चौधरी की डिगरी हो गयी और यद्यपि उनके कई सौ रुपये खर्च हुए पर गाँव में उनकी खोई प्रतिष्ठा फिर जम गयी। धाक बैठ गयी। सारा गाँव उनका भक्त हो गया। इस विजय का आनन्दोत्सव मनाया गया। सत्यनारायण की कथा हुई, ब्राह्मणों का भोज हुआ और तालाब के चारों ओर पक्के घाट की नींव पड़ गयी। गौस खाँ के भी सैकड़ों रुपये खर्च हो गये। ये काँटे उन्होंने ज्ञानशंकर से बिना पूछे ही बोये थे। इसलिए इसका फल भी उन्हीं को खाना पड़ा। हराम का धन हराम की भेंट हो गया।
गौस खाँ यह चोट खाकर बौखला उठे। सुक्खू चौधरी उनकी आँखों में काँटे की तरह खटकने लगा। दयाशंकर इस हल्के से बदल गये थे। उनकी जगह पर नूर आलम के एक दूसरे महाशय नियुक्त हुए थे। गौस खाँ ने इनके राह-रस्म पैदा करना शुरू किया। दोनों आदमियों में मित्रता हो गयी और लखनपुर पर नयी-नयी विपत्तियों का आक्रमण होने लगा।
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