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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


वर्षा के दिन थे। किसानों को ज्वार और बाजरे की रखवाली से दम मारने का अवकाश न मिलता। जिधर देखिए हा-हू की ध्वनि आती थी। कोई ढोल बजाता था, कोई टीन के पीपे पीटता था। दिन को तोतों के झुंड टूटते थे, रात को गीदड़ के गोल; उस पर धान की क्यारियों में पौधे बिठाने पड़तें थे। पहर रात रहे ताल में जाते और पहर रात गये आते थे। मच्छरों के डंक से लोगों की देह में छालें पड़ जाते थे। किसी का घर गिरता था, किसी के खेत में मेड़े कटी जाती थीं। जीवन-संग्राम की दोहाई मची हुई थी। इसी समय दारोगा नूर आलम ने गाँव में छापा मारा। सुक्खू चौधरी ने कभी कोकीन का सेवन नहीं किया था, उसकी सूरत नहीं देखी थी, उसका नाम नहीं सुना था, लेकिन उनके घर में एक तोला कोकीन बरामद हुई। फिर क्या था, मुकदमा तैयार हो गया। माल के निकलने की देर थी, हिरासत में आ गये। उन्हें विश्वास हो गया कि मैं बरी न हो सकूँगा। उन्होंने स्वयं कई आदमियों को इसी भाँति सजा दिलायी थी। हिरासत में आने के एक क्षण पहले वह घर से गये और एक हाँडी लिये हुए आये। गाँव के सब आदमी जमा थे। उनसे बोले, भाइयो, राम-राम! अब तुमसे बिदा होता हूँ। कौन जाने फिर भेंट हो या न हो! बूढ़े आदमी की जिन्दगानी का क्या भरोसा ऐसे ही भाग होंगे तो भेंट होगी। इस हाँडी में पाँच हजार रुपये हैं यह कादिर भाई को सौंपता हूँ। तालाब का घाट बनवा देना। जिन लोगों पर मेरा जो कुछ आता है वह सब छोड़ता हूँ। यह देखो, सब कागज-पत्र अब तुम्हारे सामने फाड़े डालता हूँ। मेरा किसी के यहाँ कुछ बाकी नहीं।, सब भर पाया।

दरोगा जी वहीं उपस्थित थे। रुपयों की हाँडी देखते ही लार टपक पड़ी। सुक्खू को बुलाकर कान में कहा, कैसे अहमक हो कि इतने रुपये रखकर भी बचने की फिक्र नहीं करते?

सुक्खू-अब बचकर क्या करना है ! क्या कोई रोने वाला बैठा है?

नूर आलम– तुम इस गुमान में होगे कि हाकिम को तुम्हारे बुढ़ापे पर तरस आ जायेगी। और वह तुमको बरी कर देगा। मगर इस धोखे में न रहना। यह डटकर रिपोर्ट लिखूँगा और ऐसी मोतबिर शहादत पेश करूँगा कि कोई बैरिस्टर भी जबान ना खोल सकेगा। मैं दयाशंकर नहीं हूँ, मेरा नाम नूर आलम है। चाहूँ तो एक बार खुदा को भी फँसा दूँ।

सुक्खू ने फिर उदासीन भाव से कहा, आप जो चाहें करें। अब जिन्दगी में कौन-सा सुख है कि किसी का ठेंगा सिर पर लूँ? गौस खाँ का दया-स्रोत्र उबल पड़ा। फैजू और कर्तार भी बुलबुला उठे और बिन्दा महाराज तो हाँडी की ओर टकटकी लगाये ताक रहे थे।

सब ने अलग-अलग और फिर मिलकर सुक्खू को समझाया; लेकिन वह टस से मस न हुए। अन्त में लोगों ने कादिर को घेरा। नूर आलम ने उन्हें अलग से जाकर कहा, खाँ साहब, इस बूढ़े को जरा समझाओ क्यों जान देने पर तुला हुआ है? दो साल से कम की सजा न होगी। अभी मामला मेरे हाथ में है। सब कुछ हो सकता है। हाथ से निकल गया तो कुछ न होगा। मुझे उसके बुढ़ापे पर तरस आता है।

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