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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


प्रातःकाल बिसेसर साह की दूकान खोल ही रहे थे कि अरदली के दस-बारह चपरासी दुकान पर आ पहुँचे। बिसेसर ने आटे-दाल के बोरे खोल दिये; जिन्सें तौली जाने लगीं। दोपहर तक यही ताँता लगा रहा। घी के कनस्तर खाली हो गये। तीन पड़ाव के लिए जो सामग्री एकत्र की थी, अभी समाप्त हो गयी। बिसेसर के होश उड़ गये। फिर आदमी मंडी दौड़ाये। बेगार की समस्या इससे कठिन थी। पाँच बड़े-बड़े घोड़ों के लिए हरी घास छीलना सहज नहीं था। गाँव के सब चमार इस काम में लगा दिये गये। कई नोनिये पानी भर रहे थे। चार आदमी नित्य सरकारी डाक लेने के लिए सदर दौड़ाये जाते थे। कहारों को कर्मचारियों की खिदमत से सिर उठाने की फुरसत न थी। इसलिए जब दो बजे साहब ने हुक्म दिया कि मैदान में घास छीलकर टेनिस कोर्ट तैयार किया जाय तो वे लोग भी पकड़े गये जो अब तक अपनी वृद्धावस्था या जाति सम्मान के कारण बचे हुए थे। चपरासियों ने पहले दुखरन भगत को पकड़ा। भगत ने चौंककर कहा, क्यों मुझसे क्या काम है? चपरासी ने कहा, चलो लश्कर में घास छीलनी है।

भगत– घास चमार छीलते हैं, यह हमारा काम नहीं है।

इस पर चपरासी ने उनकी गरदन पकड़कर आगे धकेला और कहा चलते हो या यहाँ कानून बघारते हो?

भगत– अरे तो ऐसा क्या अन्धेर है? अभी ठाकुर जी का भोग तक नहीं लगा।

चपरासी– एक दिन में ठाकुर जी भूखों न मर जायेंगे।

भगत ने वाद-विवाद करना उचित न समझा, सिपाहियों के बीच से निकल गये और भीतर जाकर किवाड़ बन्द कर दिये। सिपाहियों ने धड़ाधड़ किवाड़ पीटना शुरू किया। एक सिपाही ने कहा, लगा दें आग, वहीं भुन जाये। दुखरन ने भीतर से कहा, बैठो भोग लगाकर आ रहा हूँ। चपरासियों ने खपरैल फोड़ने शुरू किए। इतने में कई चपरासी कादिर खाँ आदि को साथ लिये आ पहुँचे। डपटसिंह पहर रात रहे घर से गायब हो गये थे। कादिर ने कहा, भगत घर में क्यों घुसे बैठे हो? चलो; हम लोग भी चलते हैं। भगत ने द्वार खोला और बाहर निकल आये। कादिर हँसकर बोले– आज हमारी-तुम्हारी बाजी है। देखें कौन ज्यादा घास छीलता है। भगत ने कुछ उत्तर न दिया। सब लश्कर के मैदान में आये और घास छीलने लगे।

मनोहर ने कहा– खाँ साहब के कारण हम भी चमार हो गये।

दुखरन्– भगवान् की इच्छा। जो कभी न किया, वह आज करना पड़ा।

कादिर– ज़मींदार के असामी नहीं हो? खेत नहीं जोतते हो?

मनोहर– खेत जोतते हैं तो उसका लगान नहीं देते हैं? कोई भकुआ एक पैसा भी तो नहीं छोड़ता।

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