सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
कादिर– इन बातों में क्या रखा है? गुड़ खाया है तो कान छिदाने पड़ेंगे। कुछ और बातचीत करो। कल्लू, अबकी तुम ससुराल में बहुत दिन तक रहे। क्या-क्या मार लाये?
कल्लु– मार लाया? यह कहो जान लेकर आ गया। यहाँ से चला तो कुल साढ़े तीन रुपये पास थे। एक रुपये की मिठाई ली, आठ आने रेल का किराया दिया, दो रुपये पास रख लिये। वहाँ पहुँचते ही बड़े साले ने अपना लड़का लाकर मेरी गोद में रख दिया। बिना कुछ दिये उसे गोद में कैसे लेता? कमर से एक रुपया निकालकर उसके हाथ में रख दिया। रात को गाँव भर की औरतों ने जमा होकर गाली गायीं। उन्हें भी कुछ नेग-दस्तूर मिलना ही चाहिए था। एक ही रुपये की पूँजी थी, वह उनकी भेंट की। न देता तो नाम हँसाई होती। मैंने समझा, यहाँ रुपयों का काम ही क्या है और चलती बेर कुछ न कुछ बिदाई मिल ही जायेगी। आठ दिन चैन से रहा। जब चलने लगा तो सामने एक मटका खाँड़, एक टोकरी ज्वार की बाल और एक थैली में कुछ खटाई भर कर दी। पहुँचाने के लिए एक आदमी साथ कर दिया। बस बिदाई हो गयी। अब बड़ी चिन्ता हुई कि घर तक कैसे पहुँचूँगा? जान न पहचान, माँगूँ किससे? उस आदमी के साथ टेसन तक आया। इतना बोझ लेकर पैदल घर तक आना कठिन था। बहुत सोचते-समझते सूझी कि चलकर ज्वार की बाल कहीं बेच दूँ। आठ आने भी मिल जायेंगे। तो काम चल जायेगा। बाजार में आकर एक दूकानदार से पूछा, बालें लोगे? उसने दाम पूछा। मेरे मुँह से निकला दाम तो मैं नहीं जानता, आठ आने दो, ले लो। बनिये ने समझा चोरी का माल है। थैला पटका, बालें रखवा लीं और कहा चुपके से चले जाओ, नहीं तो चौकीदार को बुलाकर थाने भिजवा दूँगा तो भैया क्या करता? सब कुछ वहीं छोड़कर भागा। दिन भर का भूखा-प्यासा पहर रात घर आया। कान पकड़े कि अब ससुराल न जाऊँगा।
कादिर– तुम तो सस्ते ही छूट गये। एक बेर मैं भी ससुराल गया था। जवानी की उमर थी। दिन-भर धूप में चला तो रतौंधी हो गयी। मगर लाज के मारे किसी से कहा तक नहीं। खाना तैयार हुआ तो साली दालान में बुलाकर भीतर चली गयी। दालान में अँधेरा था। मैं उठा तो कुछ सूझा ही नहीं कि किधर जाऊँ। न किसी को पुकारते बने, न पूछते। इधर-उधर टटोलने लगा। वहीं एक कोने में मेढ़ा बँधा हुआ था। मैं उसके ऊपर जा पहुँचा। वह मेरे पैर के नीचे से झपटकर ऊपर उठा और मुझे एक ऐसा सींग मारा कि मैं दूर जा गिरा। यह धमाका सुनते वही साली दौड़ी हुई आयी और अन्दर ले गयी। आँगन में मेरे ससुर और दो-तीन बिरादर बैठे हुए थे। मैं भी जा बैठा। पर सूझता न था कि क्या करूँ। सामने खाना रखा था। इतने में मेरी सास कड़े-छड़े पहने छन-छन करती हुई दाल की रकाबी में घी डालने आयी। मैंने छन-छन की आवाज सुनी तो रोंगटे खड़े हो गये। अभी तक घुटों में दर्द हो रहा था। समझा कि शायद मेढ़ा छूट गया। खड़ा होकर लगा पैंतरे बदलने। सास को भी एक घूँसा लगाया। घी की प्याली उनके हाथ से छूट पड़ी। वह घबड़ा के भागीं। लोगों ने दौड़कर मुझे पकड़ा और पूछने लगे, क्या हुआ, क्या हुआ? शरम के मारे मेरी जबान बन्द हो गयी। कुछ बोली ही न निकली। साला दौड़ा हुआ गया और एक मौलवी को लिवा आया। मौलवी ने देखते ही कहा, इस पर सईद मर्द सवार है। दुआ-ताबीज होने लगी। घर में किसी ने खाना न खाया। सास और ससुर मेरे सिरहाने बैठे बड़ी देर तक रोते रहे और मुझे बार-बार हँसी आये। कितना ही रोकूँ हँसी न रुके। बारे मुझे नींद आ गयी। भोरे उठ कर मैंने किसी से कुछ न पूछा न ताछा, सीधे घर की राह ली। दुखरन भगत, अपनी ससुराल की बात तुम भी कहो।
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