सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
दुखरन– मुझे इस बखत मसखरी नहीं सूझती। यही जी चाहता है कि सिर पटक कर मर जाऊँ।
मनोहर– कादिर भैया, आज बलराज होता तो खून-खराबी हो जाती। उससे यह दुर्गत न देखी जाती।
कादिर– फिर वह दुखड़ा ले बैठे। अरे जो अल्लाह को यहीं मंजूर होता कि हम लोग इज्जत-आबरू से रहें तो कास्तकार क्यों बनाता? ज़मींदार न बनाता, चपरासी न बनाता, थाने का कान्सटेबिल न बनाता कि बैठे-बैठे दूसरों पर हुकुम चलाया करते? नहीं तो यह हाल है कि अपना कमाते हैं, अपना खाते हैं, फिर भी जिसे देखो धौंस जमाया करता है। सभी की गुलामी करनी पड़ती है। क्या ज़मींदार, क्या सरकार, क्या हाकिम सभी की निगाह हमारे ऊपर टेढ़ी है। और शायद अल्लाह भी नाराज हैं। नहीं तो क्या हम आदमी नहीं हैं। कि कोई हमसे बड़ा बुद्धिमान है? लेकिन रो कर क्या करें? कौन सुनता है? कौन देखता है? खुदा ताला ने आँखें बन्द कर लीं। जो कोई भलामानुष दरद बूझाकर हमारे पीछे खड़ा भी हो जाता है तो बेचारे की जान भी आफत में फँस जाती है। उसे तंग करने के लिए, फँसाने के लिए तरह-तरह के कानून गढ़ लिए जाते हैं। देखते तो हो, बलराज के अखबार में कैसी-कैसी बातें लिखी रहती हैं। यह सब अपनी तकदीर की खूबी है।
यह कहते-कहते कादिर खाँ रो पड़े। वह हृदय-ताप जिसे वह हास्य और प्रमोद से दबाना चाहते थे, प्रज्वलित हो उठा। मनोहर ने देखा तो उसकी आँखें रक्तपूर्ण हो गयीं– पददलित अभिमान की मूर्ति की तरह।
चारों में से कोई न बोला। सब के सब सिर झुकाये चुपचाप घास छीलते रहे, यहाँ तक कि तीसरा पहर हो गया। सारा मैदान साफ हो गया। सबने खुरपियाँ रख दीं और कमर सीधी करने के लिए जरा लेट गये। बेचारे समझते थे कि गला छूट गया, लेकिन इतने में तहसीलदार साहब ने आकर हुक्म दिया, गोबर लाकर इसे लीप दो, खूब चिकना कर दो, कोई कंकड़-पत्थर न रहने पाये। कहाँ हैं नाजिर जी, इन सबको डोल रस्सी दिलवा दीजिए।
नाजिर जी ने तुरन्त डोल और रस्सी मँगाकर रख दी। कादिर खाँ ने डोल उठाया और कुएँ की तरफ चले, लेकिन दुखरन भगत ने घर का रास्ता लिया तहसीलदार ने पूछा, इधर कहाँ?
दुखरन ने उद्दण्डता से कहा– घर जा रहा हूँ।
तहसीलदार– और लीपेगा कौन?
दुखरन– जिसे गरज होगी वह लीपेगा।
तहसीलदार– इतने जूते पड़ेंगे कि दिमाग की गरमी उतर जायेगी।
दुखरन– आपका अख्तियार है– जूते मारिये चाहें फाँसी दीजिए, लेकिन लीप नहीं सकता।
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