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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


कादिर– भगत, तुम कुछ न करना। जाओ, बैठे ही रहना। तुम्हारे हिस्से का काम मैं कर दूँगा।

दुखरन– मैं तो अब जूते खाऊँगा। जो कसर है वह भी पूरी हो जाये।

तहसीलदार– इस पर शामत सवार है। है कोई चपरासी, जरा लगाओ तो बदमाश को पचास जूते, मिजाज ठंडा हो जाये!

यह हुक्म पाते ही एक चपरासी ने लपककर भगत को इतने जोर से धक्का दिया कि वह जमीन पर गिर पड़े और जूते लगाने लगा। भगत् जड़वत् भूमि पर पड़ रहे। संज्ञा शून्य हो गये, उनके चेहरे पर क्रोध या ग्लानि का चिह्न भी न था। उनके मुख से हाय तक न निकलती थी। दीनता ने समस्त चैतन्य शक्तियों का हनन कर दिया था। कादिर खाँ कुएँ पर से दौड़े हुए आये और उस निर्दय चपरासी के सामने सिर झुककर बोले, सेख जी, इनके बदले मुझे जितना चाहिए मार लीजिए, अब बहुत हो गया।

चपरासी ने धक्का देकर कादिर खाँ को ढकेल दिया और फिर जूता उठाया कि अकस्मात् सामने से एक इक्के पर प्रेमशंकर और डपटसिंह आते दिखाई दिये। प्रेमशंकर पर हृदय-विदारक दृश्य देखने ही इक्के से कूद पड़े और दौड़े हुए चपरासी के पास आ कर बोले, खबरदार जो फिर हाथ चलाया।

चपरासी सकते में आ गया। कल्लू, मनोहर सब डोल-रस्सी छोड़-छाड़ कर दौड़े और उन्हें सलाम कर खड़े हो गये। प्रेमशंकर के चारों ओर एक जमघट सा हो गया। तहसीलदार ने कठोर स्वर में पूछा, आप कौन हैं? आपको सरकारी काम में मुदाखिलत करने का क्या मजाल है?

प्रेमशंकर– मुझे नहीं मालूम था कि गरीबों को जूते लगवाना भी सरकारी काम है। इसने क्या खता की थी, जिसके लिए आपने यह सजा तजवीज की?

तहसीलदार– सरकारी हुक्म की तामील से इन्कार किया। इससे कहा गया था कि इस मैदान को गोबर से लीप दे, पर इसने बदजबानी की।

प्रेम– आपको मालूम नहीं था कि यह ऊँची जाति का काश्तकार है? जमीन लीपना या कूड़ा फेंकना इनका काम नहीं है।

तहसीलदार– जूते की मार सब कुछ करा लेती है।

प्रेमशंकर का रक्त खौल उठा, पर जब्त से काम लेकर बोले, आप जैसे जिम्मेदार ओहदेदार की जबान से यह बात सुनकर सख्त अफसोस होता है।

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