लोगों की राय

सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

370 पाठक हैं

‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


रानी– स्वामी जी, मैं इस सोग में मर जाऊँगी। यह उजले सनके-से बाल, यह पोपला मुँह कहाँ देखूँगी (कटाक्ष भाव) किसको गोद में लूँगी? किससे ठुनकूँगी? अब मैं किसी तरह न बचूँगी।

राजा की साँस उखड़ जाती है, आंखें पथरा जाती हैं, नाड़ी छूट जाती है। रानी छाती पीटकर रोने लगती है। दरबार में हाहाकार मच जाता है।

राजा के कानों में आकाशवाणी होती है– हम तुझे एक घण्टे की मोहलत देते हैं, अगर मुझे तीन मनुष्य ऐसे मिल जायँ जो दिल से तेरे जीने की इच्छा रखते हों तो तू अमर हो जायेगा।

राजा सचेत हो जाता है, उसके मुखारबिन्दु पर जीवन-ज्योति झलकने लगती है। वह प्रसन्नमुख उठ बैठता है और आप-ही- आप कहता है, अब मैं अमर हो गया, अकण्टक राज्य करूँगा, शत्रुओं का नाश कर दूँगा। मेरे राज्य में ऐसा कौन प्राणी है जो हृदय में से मेरे जीने की इच्छा न रखता हो। तीन नहीं, तीन लाख आदमी बात-बात में निकल आयेंगे।

दूसरा अंक

(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप)

समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बार रक्षा की है और उसे कितना लाभ पहुँचाया है। यह सेठ जी का घर आ गया। सेठ जी, सेठजी, जरा बाहर आओ।

सेठ– क्या है? इतनी रात गये कौन काम है?

राजा– कुछ नहीं; अपने स्वर्गवासी राजा का यश गाकर उनकी आत्मा को शान्ति देना चाहता हूँ। कैसे धर्मात्मा, प्रजा-प्रिय, पुरुष थे! उनका परलोक हो जाने से सारे देश में अन्धकार-सा छा गया है। प्रजा उनको कभी न भूलेगी। आपसे तो उनकी बड़ी मैत्री थी, आपको तो और भी दुःख हो रहा होगा?

सेठ– मुझे उनके राज्य में कौन-सा सुख था कि अब दुःख होगा? मर गये, अच्छा हुआ। उसकी बदौलत लाखों रुपये साधु सन्तों को खिलाने पड़ते थे।

राजा– (मन में) हाय! इस सेठ पर मुझे कितना भरोसा था। यह मेरे इशारे पर लाखों रुपये दान कर दिया करता था। सच कहा है; बनिये किसी के मित्र नहीं होते। मैं जन्म भर इसके साथ रहा, पर इसे पहचान न सका। अब चलूँ मन्त्री के पास, वह बड़ा स्वामि-भक्त सज्जन पुरुष हैं। उसके साथ मैंने बड़े-बड़े सलूक किये हैं। यह उसका भवन आ गया। शायद अभी दरबार से आ रहा है। मंत्रीजी, कहिए क्या राज दरबार से आ रहे हैं? इस समय तो दरबार में शोक मनाया जा रहा होगा। ऐसे धर्मात्मा राजा की मृत्यु पर जितना शोक किया जाय, वह थोड़ा है। अब फिर ऐसा राजा न होगा। आपको तो बहुत ही दुःख हो रहा होगा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book