सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
370 पाठक हैं |
‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
मनोहर के हर शब्दों में इतना भयंकर संकल्प, इतना घातक निश्चय भर हुआ था कि बलराज अधिक आग्रह न कर सका। उसने लाठी रख दी और माँ से कहा, अभी घर जाओ। हम लोग आयेंगे तो देखा जायेगा।
मनोहर– नहीं, घर मत जाओ। यहीं बैठो। साँझ को सब जने साथ ही चलेंगे। वह कौन दौड़ा आ रहा है? बिन्दा महाराज हैं क्या?
बलराज– नहीं, कादिर दादा जान पड़ते हैं। हाँ, वहीं हैं। भागे चले जाते हैं। मालूम होता हैं गाँव में मारपीट हो गयी। दादा क्या है, कैसे दौड़े आते हो, कुशल तो है?
कादिर ने दम लेकर कहा, तुम्हारे ही पास तो दौड़े आते हैं। बिलासी रोती आयी है। मैं डरा तुम लोग गुस्से में न जाने क्या कर बैठो। चला कि राह में मिल जाओगे तो रोक लूँगा, पर तुम कहीं मिले ही नहीं। अब तो जो हो गया सो हो गया, आगे की खबर करो। आज से ज़मींदार ने चरावर रोक दी है। अन्धेर देखते हो?
मनोहर– हाँ, देख तो रहा हूँ। अन्धेर-ही-अन्धेर है।
कादिर– फिर अदालत जाना पड़ेगा।
मनोहर– चलो, मैं तैयार हूँ।
कादिर– हाँ, आज जाओ तो सलाह पक्की करके सवाल दे दें। अबकी हाईकोर्ट तक लड़ेंगे, चाहे घर बिक जाय। बस, हल पीछे चन्दा लगा लिया जाय।
मनोहर– हाँ, यही अच्छा होगा।
कादिर– मैं नवाज पढ़ता था, सुना बिलासी को चरावर में चपरासियों ने बुरा-भला कहा और वह रोती हुई इधर-उधर आयी है। समझ गया कि आज गजब हो गया। बारे तुमने सबर से काम लिया अल्लाह इसका सवाब तुमको देगा। तो मैं अब जाता हूँ, अपने चन्दे की बातचीत करता हूँ। जरा दिन रहते चले आना।
कादिर खाँ सावधान चले गये। यह न समझे कि यहाँ मन में कुछ और ठन गयी है। मनोहर के तुले हुए शब्दों को उन्होंने मानसिक धैर्य का द्योतक समझा।
|