सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
तब भी, जब वह अपने खेतों के डाँडे पर पहुँची, मनोहर और बलराज नगर आने लगे तब उसके पैर आप ही रुकने लगे। यहाँ तक कि जब वह उनके पास पहुँची तब परिणाम चिन्ता ने उसे परास्त कर दिया। वह फूट-फूटकर रोने लगी। जानती थी और समझती थी कि यह आँसू की बूँदें आग की चिनगारियाँ हैं। पर आवेश पर अपना काबू न था! वह खेत के किनारे खड़ी हो गयी और मुँह ढाँपकर रोने लगी।
बलराज ने सशंक होकर पूछा– अम्मा क्या बात है? रोती क्यों है? क्या हुआ? यह सारा कपड़ा कैसे लोहूलुहान हो गया?
बिलासी ने साड़ी की ओर देखा तो वास्तव में रक्त के छींटे दिखायी दिये, घुटनियों से खून बह रहा था, उसका हृदय थर-थर काँपने लगा। इन छींटों को छिपाने के लिए वह इस समय अपने प्राण तक दे सकती थी। हाय! मेरे सिर पर कौन सा भूत सवार हो गया कि यहाँ दौड़ी आयी! मैं क्या जानती थी कि कहीं फूट-फाट भी गया है। अब गजब हो गया! मुझे चाहिए था कि धीरज धरे बैठी रहती। साँझ को जब यह लोग घर जाते और गाँव के सब आदमी जमा होते तो सारा वृत्तान्त कह देती। जैसी सबकी सलाह होती, वैसा किया जाता। इस अव्यवस्थित दशा में कोई शान्तिप्रद उत्तर न सोच सकी।
बलराज ने फिर पूछा– कुछ मुँह से बोलती क्यों नहीं? बस रोये जाती है। क्या हुआ, कुछ बता भी तो!
बिलासी– (सिसकते हुए) फैजू और गौस खाँ हमारी सब गायें-भैंसें कानी हौद हाँक ले गये।
बलराज– क्यों? क्या उनकी सीर में पड़ी थीं?
बिलासी– नहीं, कहते थे कि चरावर चराने की मनाही हो गयी है।
बलराज ने देखा कि माता की आँखें झुकी हुई हैं और मुख पर मर्माघात की आभा झलक रही है। उसने उग्रावस्था में स्थिति को उससे कहीं, भयंकर समझ लिया, जितनी वह वस्तुतः थी कुछ और पूछने की हिम्मत न पड़ी। आँखें रक्त-वर्ण हो गयीं। कंधे पर लट्ठ रख लिया और मनोहर से बोला, मैं ज़रा गाँव तक जाता हूँ।
मनोहर– क्या काम है?
बलराज– फैजू और गौस खाँ से दो-दो बातें करनी हैं।
मनोहर– ऐसी बात करने का यह मौका नहीं। अभी जाओगे तो बात बढ़ेगी और कुछ हाथ भी न लगेगा। चार आदमी तुम्हीं को बुरा कहेंगे। अपमान का बदला इस तरह नहीं लिया जाता।
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