सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
डॉक्टर– अबकी आपने बड़ा इन्तजार कराया। मैं तो आपसे मिलने के लिए गोरखपुर आने वाला था।
ज्ञानशंकर– रियासत का काम इतना फैला हुआ है कि कितना ही समेटूँ, नहीं सिमटता।
डॉक्टर– आपको मालूम तो होगा, यहाँ युनिवर्सिटी में इकनोमिक्स की जगह खाली है। अब तो आप सिण्डिकेट में भी आ गये हैं।
ज्ञानशंकर– जी हाँ, सिण्डिकेट में तो लोगों ने जबरदस्ती धर घसीटा लेकिन यहाँ रियासत के कामों में फुर्सत कहाँ कि इधर तवज्जह करूँ। कुछ कागजात गये थे, लेकिन मुझे उनके देखने का मौका ही न मिला।
डॉक्टर– डॉक्टर दास के चले जाने से यह जगह खाली हो गयी है और मैं इसका उम्मीदवार हूँ।
ज्ञानशंकर ने आश्चर्य से कहा, आप!
डॉक्टर– जी हाँ, अब मैंने यही फैसला किया है। मेरी तबीयत रोज-ब-रोज वकालत से बेजार होती जाती है।
ज्ञानशंकर– आखिर क्यों? आपकी वकालत तो तीन-चार हजार से कम की नहीं। हुक्काम की खुशामद तो नहीं खलती? या काँसेन्स (आत्मा) का खयाल है?
डॉक्टर– जी नहीं, सिर्फ इसलिए कि इस पेशे में इन्सान की तबियत बेजा जरपरस्ती की तरफ मायल हो जाती है। कोई ‘वकील कितना ही हकशिनास क्यों न हो, उसे हमदर्दी और इन्सानियत से खुशी नहीं होती जो एक शरीफ आदमी को होनी चाहिए। इसके खिलाफ आपस की लड़ाइयों और दगाबाजियों से एक खास दिलचस्पी हो जाती है, वह एक दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाता है, जो लतीफ जज़बात से खाली है। मैं महानों से इसी कशमकश में पड़ा हुआ हूँ और अब भी यह इरादा है कि जितनी जल्द मुमकिन हो इस पेशे को सलाम करूँ।
यही बातें हो रही थीं कि फैजू और कर्तार सिंह ने सामने आकर सलाम किया। ज्ञानशंकर ने पूछा, कहो खैरियत तो है।
फैजू– हुजूर, खैरियत क्या कहें! रात को किसी ने खाँ साहब को मार डाला।
ईजाद हुसेन और इर्फान अली चौंक पड़े, लेकिन ज्ञानशंकर लेश-मात्र भी विचलित न हुए, मानो उन्हें यह बात पहले ही मालूम थी। बोले, तुम लोग कहाँ थे? कहीं सैर-सपाटे करने चले दिये थे या अफीम की पिनक में पड़े हुए थे।
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