सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
फैजू– हुजूर, थे तो चौपाल में ही, पर किसी को क्या खबर कि यह वारदात होगी?
ज्ञान– क्यों, खबर क्यों न थी? जो आदमी साँप को पैरों से कुचल रहा हो उसे यह मालूम होना चाहिए कि साँप के दाँत जहरीले होते हैं। ज़मींदारी करना साँप को नचाना है। वह सँपेरा अनाड़ी है जो साँप को काटने का मौका दे! खैर, कातिल का कुछ पता चला?
फैज– जी हाँ, वही मनोहर अहीर है। उसने सवेरे ही थाने में जा कर एकबाल कर दिया। दोपहर को थानेदार साहब आ गये और तहकीकात कर रहे हैं। खाँ साहब का तार हुजूर को मिल गया था? जिस दिन खाँ साहब ने चरावर को रोकने का हुक्म दिया उसी दिन गाँव वालों में एका हो गया। खाँ साहब ने घबड़ाकर हुजूर को तार दिया। मैं तीन बजे तारघर से लौटा तो गाँव में मुकदमा लड़ने के लिए चन्दे का गुट्ट हो रहा था। रात को यह वारदात हो गयी।
अकस्मात् प्रेमशंकर लाला प्रभाशंकर के साथ आ गए। ज्ञानशंकर को देखते ही प्रेमशंकर टूटकर उनसे गले मिले और पूछे, कब आए? सब कुशल है न?
ज्ञानशंकर ने रुखाई से उत्तर दिया, कुशल का हाल इन आदमियों से पूछिए जो अभी लखनपुर से आये हैं। गाँव वालों ने गौस खाँ का काम तमाम कर दिया।
प्रेमशंकर स्तम्भित हो गये। मुँह से निकला, अरे! यह कब?
ज्ञान– आज ही रात को।
प्रेम– बात क्या है?
ज्ञान– गाँव वालों की बदमाशी और सरकशी के सिवा और क्या बात हो सकती है। मैंने चरावर को रोकने का हुक्म दिया था। वहाँ एक बाग लगाने का विचार था। बस, इतना बहाना पाकर सब खून-खच्चर पर उद्यत हो गए।
प्रेम– कातिल का कुछ पता चला?
ज्ञान– अभी तो मनोहर ने थाने में जाकर एक बाल किया है।
प्रेम– मनोहर तो बड़ा सीधा, गम्भीर पुरुष है।
ज्ञान– (व्यंग्य से) जी हाँ, देवता था।
डॉक्टर साहब ने मार्मिक भाव से देखकर कहा, यह किसी एक आदमी का खेल हार्गिज नहीं है।
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