सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
ज्ञान– वही मेरा भी ख्याल है। मनोहर की इतनी मजाल नहीं है कि वह अकेला यह काम कर सके। निस्सन्देह सारा गाँव मिला हुआ है। मनोहर को सबने तबेले का बन्दर बना रखा है। देखिए थानेदार की तहकीकात का क्या नतीजा होता है। कुछ भी हो, अब मैं इस मौजे को वीरान करके ही छोड़ूँगा। क्यों फैजू, तुम्हारा क्या खयाल है? मनोहर अकेले यह काम कर सकता है?
फैजू– नहीं हुजूर, साठ बरस का बुड्ढा भला क्या हिम्मत करता! और कोई चाहे उसका मददगार न हो, लेकिन उसका लड़का तो जरूर ही साथ रहा होगा।
कर्तार– वह बुड्ढा है तो क्या, बड़े जीवट का आदमी है। उसके सिवा गाँव में किसी का इतना कलेजा नहीं है।
ज्ञान– तुम गँवार आदमी हो, इन बातों को क्या समझो। तुम्हें भंग का गोला चाहिए। डॉक्टर साहब, मुआमले में मुद्दई तो सरकार होगी, लेकिन आप भी मेरी तरफ से पैरवी कीजिएगा। मैंने फैसला कर लिया है कि गाँव के किसी बालिग आदमी को बेदाग न छोड़ूँगा।
प्रेमशंकर ने दबी जबान से कहा, अगर तुम्हें विश्वास हो कि यह एक आदमी का काम है तो सारे गाँव को समेटना उचित नहीं। ऐसा न हो कि गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाय।
ज्ञानशंकर क्रुद्ध होकर बोले, बहुत अच्छा हो अगर आप इस विषय में अपने सत्य और न्याय के नियमों का स्वाँग न रचें। यह इन्हीं की बरकत है कि आज इन दुष्टों को इतना साहस हुआ है। आप मुझे साफ-साफ कहने पर मजबूर कर रहे हैं। ये सब आपके ही बल पर कूद रहे हैं। आपने प्रत्येक अवसर पर मेरे विपक्ष में उनकी सहायता की है, उनसे भाईचारा किया है। और उनके सिर पर हाथ रखने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। आपके इसी भ्रातृ-भाव ने उनके सिर फिरा दिये। मेरा भय उनके दिल से जाता रहा। आपके सिद्धान्तों और विचारों का मैं आदर करता हूँ, लेकिन आप कड़वी नीम को दूध से सींच रहे हैं। और आशा करते हैं कि मीठे फल लगेंगे। ऐसे कुपात्रों के साथ ऊँचे नियमों का व्यवहार करना दीवाने के हाथ में मशाल दे देना है।
प्रेमशंकर ने फिर जबान न खोली और न सिर उठाया। लाला प्रभाशंकर को ये बातें ऐसी बुरी लगीं कि वह तुरन्त उठकर चले गये। लेकिन प्रेमशंकर आत्म-परीक्षा में मौन मूर्तिवत् बैठे रहे। दीन देहातियों के साथ साधारण सज्जनता का बर्ताव करने का परिणाम ऐसा भयंकर होगा यह एक बिलकुल नया अनुभव था। केवल एक आदमी की जान ही नहीं गयी, वरन् और भी कितने ही प्राणों के बलिदान होने की आशंका थी। भगवान् उन गरीबों पर दया करो। मैंने सच्चे हृदय से उनकी सेवा नहीं की। द्वेष का भाव मुझे प्रेरित करता रहा। मैं ज्ञानशंकर को नीचा दिखाना चाहता था। यह समस्या उसी द्वेष भाव का दंड है। क्या एक लखनपुर ही अपने ज़मींदार के अत्याचारों से पीड़ित था? ऐसा कौन-सा इलाका है कि ज़मींदार के हाथों रक्त के आँसू न बहा रहा हो। तो लखनपुर के ही प्रति मेरी इतनी सहानुभूति क्यों प्रचंड हो गयी और फिर ऐसे अत्याचार क्या इससे पहले न होते थे? यह तो आये दिन ही होता रहता था; लेकिन कभी असामियों को चूँ करने की हिम्मत न पड़ती थी। इस बार वह क्यों मार-काट पर उद्यत हो गये! इन शंकाओं का उन्हें एक ही उत्तर मिलता था। और वही उस उत्तरदायित्व के भार को और गुरुतर बना देता था। हाय! मैंने कितने प्राणों को अपनी ईर्ष्याग्नि के कुंड में झोंक दिया! अब मेरा कर्त्तव्य क्या है? क्या यह आग लगाकर दूर से खड़ा तमाशा देखूँ? यह सर्वथा निंद्य है। अब तो इन अभागों की यथा योग्य सहायता करनी ही पड़ेगी, चाहे ज्ञानशंकर को कितना ही बुरा लगे। इसके सिवा मेरे लिए कोई दूसरा मार्ग नहीं है।
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