सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
370 पाठक हैं |
‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
श्रद्धा ने ज्ञानशंकर की ओर कातर नजरों से देखा और सिर झुका लिया। अपने मन के भावों को प्रकट न कर सकी। विद्या ने कहा, तुम जरा थानेदार के पास क्यों नहीं चले जाते? जैसे बने, उन्हें राजी कर लो।
ज्ञान– हाँ कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा; लेकिन एक छोटे आदमी की खुशामद करना, उसके नखरे उठाना कितने अपमान की बात है! भाई साहब को ऐसा न समझता था।
श्रद्धा ने सिर झुकाये हुए सरोष स्वर में कहा, पुलिसवाले उन पर जो अपराध लगायें; वह ऐसे आदमी नहीं हैं कि गाँववालों को बहकाते फिरें, बल्कि अगर गाँववालों की नीयत उन्हें पहले मालूम हो जाती तो यह नौबत ही न आती। तुम्हें थानेदार की खुशामद करने की कोई जरूरत नहीं। वह अपनी रक्षा आप कर सकते हैं।
विद्या– मैं तुम्हें बराबर समझाती आती थी कि देहातियों से रार न बढ़ाओ। बिल्ली भी भागने को सह नहीं पाती तो शेर हो जाती है। लेकिन तुमने कभी कान ही न दिये।
ज्ञान– कैसी बेसिर पैर की बातें करती हो? मैं इन टकड़गदे किसानों से दबता फिरूँ? ज़मींदार न हुआ कोई चरकटा हुआ। उनकी मजाल थी कि मेरे मुकाबले में खडे़ होते? हाँ, जब अपने ही घर में आग लगाने वाले मौजूद हों, तो जो कुछ न हो जाय वह थोड़ा है। मैं एक नहीं सौ बार कहूँगा कि अगर भाई साहब ने इन्हें सिर न चढ़ाया होता तो आज इनके हौसले इतने न बढ़ते।
विद्या– (दबी जबान से) सारा शहर जिसकी पूजा करता है उसे तुम घर में आग लगानेवाले कहते हो?
ज्ञान– यही लोक-सम्मान तो सारे उपद्रवों का कारण है।
श्रद्धा और ज्यादा न सुन सकी। उठकर अपने कमरे में चली गयी। तब ज्ञानशंकर ने कहा, मुझे तो इनके फँसने में जरा सन्देह नहीं है।
विद्या– तुम अपनी ओर से उनके बचाने में कोई बात उठा न रखना, यह तुम्हारा धर्म है। आगे विधाता ने जो लिखा है वह तो होगा ही।
ज्ञान– भाभी की तबियत का कुछ और ही रंग दिखाई देता है।
|