सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
सरकारी वकील ने कहा, चुप रहो, नहीं तो गवाह पर बेजा दबाव डालने का दूसरा दफा लग जायेगा।
सन्ध्या का समय यह लोग हिरासत में बैठे हुए इधर-उधर की बातें कर रहें थे। मनोहर अलग एक कोठरी में रखा गया था। कादिर ने प्रेमशंकर से कहा, मालिक आप तो हक-नाहक इस आफत में फँसे। हम लोग ऐसे अभागे हैं कि जो हमारी मदद करता है उस पर भी आँच आ जाती है। इतनी उमिर गुजर गयी, सैकड़ों पढ़े-लिखे आदमियों को देखा, पर आपके सिवा और कोई ऐसा न मिला, जिसने हमारी गरदन पर छूरी न चलायी हो। विद्या की दुनिया बड़ाई करती है। हमें तो ऐसा जान पड़ता है कि विद्या पढ़कर आदमी और भी छली-कपटी हो जाता है। वह गरीब का गला रेतना सिखा देती है। आपको अल्लाह ने सच्ची विद्या दी थी। उसके पीछे लोग आपके भी दुश्मन हो गये।
दुखरन– यह सब मनोहर की करनी है। गाँव-भर को डूबा दिया।
बलराज– न जाने उनके सिर कौन सा भूत सवार हो गया? गुस्सा हमें भी आया था, लेकिन उनको तो जैसे नशा चढ़ जाय।
डपट– चरावर की बिसात ही क्या थी। उसके पीछे यह तूफान।
कादिर– यारो? ऐसी बातें न करो। बेचारे ने तुम लोगों के लिए, तुम्हारे हक की रक्षा करने के लिए यह सब कुछ किया। उसकी हिम्मत और जीवन की तारीफ तो नहीं करते और उसकी बुराई करते हो। हम सब-के-सब कायर हैं, वही एक मर्द है।
कल्लू– बिसेसर की मति ही उल्टी हो गयी।
दुखरन– बयान क्या देता है जैसे तोता पढ़ रहा है।
डपट– क्या जाने किसके लिए इतना डरता है? कोई आगे पीछे भी तो नहीं है।
कल्लू– अगर यहाँ से छूटा तो बच्चू के मुँह में कालिख लगा के गाँव भर में घुमाऊँगा।
डपट– ऐसा कंजूस है कि भिखमंगे को देखता है तो छुछूँदर की तरह घर में जाकर दबक जाता है।
कल्लू– सहुआइन उसकी भी नानी है। बिसेसर तो चाहे एक कौड़ी फेंक भी दे, वह अकेली दूकान पर रहती है तो गालियाँ छोड़ और कुछ नहीं देती। पैसे का सौदा लेने जाओ तो धेले का देती है। ऐसी डाँडी मारती है कि कोई परख ही नहीं सकता?
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