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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


बलराज– क्यों कादिर दादा, कालेपानी जा कर लोग खेती-बारी करते हैं न?

कादिर– सुना है वहाँ ऊख बहुत होती है।

बलराज– तब तो चाँदी है। खूब ऊख बोयेंगे।

कल्लू– लेकिन दादा, तुम चौदह बरस थोड़े ही जियोगे। तुम्हारी कबर कालेपानी में ही बनेगी।

कादिर– हम तो लौट आना चाहते हैं, जिसमे अपनी हड़ावर यहीं दफन हो। वहाँ तुम लोग न जाने मिट्टी की क्या गत करो।

दुखरन– भाई, मरने-जीने की बात मत करो। मनाओ कि भगवान सबको जीता-जागता फिर अपने बाल-बच्चों में ले आये।

बलराज– कहते हैं, वहाँ पानी बहुत लगता है।

दुखरन– यह सब तुम्हारे बाप की करनी है, मारा, गाँव-भर का सत्यानश कर दिया। अकस्मात् कमरे का द्वार खुला और जेल के दारोगा ने आ कर कहा, बाबू प्रेमशंकर, आपके ऊपर से सरकार ने मुकदमा उठा लिया। आप बरी हो गये। आपके घरवाले बाहर खड़े हैं।

प्रेमशंकर को ग्रामीणों के सरल वार्तालाप में बड़ा आनन्द आ रहा था। चौंक पड़े। ज्ञानशंकर और ज्वालासिंह के बयान उनके अनुकूल हुए थे, लेकिन यह आशय न था कि वह इस आधार पर निर्दोष ठहराये जायँगे। वह तुरन्त ताड़ गये कि यह चचा साहब की करामात है, और वास्तव में था भी यही। प्रभाशंकर को जब वकीलों से कोई आशा न रही तो उन्होंने कौशल से काम लिया और दो-ढाई हजार रुपयों का बलिदान करके यह वरदान पाया था। रिश्वत, खुशामद, मिष्टालाप यह सभी उनकी दृष्टि में हिरासत से बचने के लिए क्षम्य था।

प्रेमशंकर ने जेलर से कहा, यदि नियमों के विरुद्ध न हो तो कम-से-कम मुझे रात भर और यहाँ रहने की आज्ञा दीजिए। जेलर ने विस्मित हो कर कहा, यह आप क्या कहते हैं? आपका स्वागत करने के लिए सैकड़ों आदमी बाहर खड़े हैं!

प्रेमशंकर ने विचार किया, इन गरीबों को मेरे यहाँ रहने की कितना ढाँढ़स था। कदाचित उन्हें आशा थी कि इनके साथ हम लोग भी बरी हो जायँगे। मेरे चले जाने से ये सब निराश हो जायँगे। उन्हें तसल्ली देते हुए बोले, भाइयों मुझे विवश हो कर तुम्हारा साथ छोड़ना पड़ रहा है, पर मेरा हृदय आपके ही साथ रहेगा। सम्भव है बाहर आ कर मैं आपकी कुछ सेवा कर सकूँ। मैं प्रति दिन आपसे मिलता रहूँगा।

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