सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
साथियों से बिदा होकर ज्यों ही वह फाटक पर पहुँचे कि लाला प्रभाशंकर ने दौड़कर उन्हें छाती से लगा लिया। जेल के चपरासियों ने उन्हें चारों ओर, से घेर लिया और इनाम माँगने लगे। प्रभाशंकर ने हर एक को दो-दो रुपये दिये। बग्घी चलने ही वाली थी कि बाबू ज्वालासिंह अपनी मोटर साइकिल पर आ पहुँचे और प्रेमशंकर के गले लिपट गये। प्रेमशंकर ने पहले हाजीपुर जाकर फिर लौटने का निश्चय किया। ज्योंही बग्घी बगीचे में पहुँची, हलवाहे और माली सब दौड़े और प्रेमशंकर के चारों ओर खड़े हो गये।
प्रेम– क्यों जी, दमड़ी जुताई हो रही है न?
दमड़ी ने लज्जित होकर कहा, मालिक, औरों की तो नहीं कहता, पर मेरा मन काम करने में जरा भी नहीं लगता। यही चिन्ता लगी रहती थी कि आप न जाने कैसे होंगे (निकट आकर) भोला कल एक टोकरी आमरूद तोड़ कर बेच लाया है।
भोला– दमड़ी तुमने सरकार के कान में कुछ कहा तो ठीक न होगा। मुझे जानते हो कि नहीं? यहाँ जेहल से नहीं डरते! जो कुछ कहना हो मुँह पर बुरा-भला कहो।
दमड़ी– तो तुम नाहक जामे से बाहर हो गये। तुम्हें कोई कुछ थोड़े ही कहता है।
भोला– तुमने कानाफूसी की क्यों? मेरी बात न कही होगी, किसी और की कही होगी तुम कौन होते हो किसी की चुगली खानेवाले?
मस्ता कोरी ने समझाया– भोला, तुम खामखा झगड़ा करने लगते हो। तुमसे क्या मतलब? जिसके जी मैं आता है मालिक कहता है। तुम्हें क्यों बुरा लगता है।
भोला– चुगली खाने चले हैं, कुछ काम करें न धन्धा सारे दिन नशा खाये पड़े रहते हैं, इनका मुँह है कि दूसरों की शिकायत करें।
इतने में भवानीसिंह आ पहुँचे, जो मुखिया थे। यह विवाद सुना तो बोले– क्यों लड़े मरते हो यारो, क्या फिर दिन न मिलेगा? मालिक से कुशल-क्षेम पूछना तो दूर रहा, कुछ सेवा-टहल तो हो न सकी, लगे आपस में तकरार करने।
इस सामयिक चेतावनी ने सबको शान्त कर दिया। कोई दौड़कर झोंपड़े में झाडू लगाने लगा, किसी ने पलँग डाल दिया, कोई मोढ़े निकाल लाया, कोई दौड़ कर पानी लाया, कोई लालटेन जलाने लगा। भवानीसिंह अपने घर से दूध लाये। जब तीनों सज्जन जलपान करके आराम से बैठे तो ज्वालासिंह ने कहा, इन आदमियों से आप क्योंकर काम लेते हैं? मुझे तो सभी निकम्मे जान पड़ते हैं।
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