सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
370 पाठक हैं |
‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
कुछ दूर तक गली में चलने के बाद वह स्त्री सड़क पर आ पहुँची और दशाश्वमेध घाट की ओर चली। सड़क पर लालटेनें जल रही थीं। रास्ता बन्द न था, पर बहुत कम लोग चलते दिखायी देते थे। प्रेमशंकर को उस स्त्री की चाल से अब पूरा विश्वास हो गया। कि वह श्रद्धा है। उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही। यह इतनी रात गये इस तरफ कहाँ जाती है? उन्हें उस पर कोई सन्देह न हुआ। वे उसके पातिव्रत्य को अखंड और अविचल समझते थे। पर इस विश्वास से उनकी प्रश्नात्मक शंका को और भी उत्तेजित कर दिया। उसके पीछे-पीछे चलते रहे; यहाँ तक कि गंगातट की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ आ पहुँची। गली में अँधेरा था, पर कहीं-कहीं खिड़कियों से प्रकाश ज्योति आ रही थी, मानों कोई सोता हुआ आदमी स्वप्न देख रहा हो। पग-पग पर साँड़ों का सामना होता था। कहीं-कहीं कुत्ते भूमि पर पड़ी हुई पत्तलों को चाट रहे थे। श्रद्धा सीढ़ियों से उतरकर गंगातट पर जा पहुँची। अब प्रेमशंकर को भय हुआ, कहीं इसने अपने मन में कुछ और तो नहीं ठानी है। उनका हृदय काँपने लगा। वह लपक कर सीढ़ियों से उतरे और श्रद्धा से केवल इतनी दूर खड़े हो गये कि तनिक खटक होते ही एक छलाँग में उसके पास जा पहुँचे। गंगा निद्रा में मग्न थीं। कहीं-कहीं जल-जन्तुओं के छपकने की आवाज आ जाती थी। सीढ़ियों पर कितने ही भिझुक पड़े सो रहे थे। प्रेमशंकर को इस समय असह्य ग्लानि-वेदना हो रही थी। यह मेरी क्रूरता– मेरी हृदय-शून्यता का फल है! मैंने अपने सिद्धान्त-प्रेम और आत्म-गौरव के घमण्ड में इसके विचारों की अवहेलना की, इसके मनोभावों को पैरों से कुचला, इसकी धर्मनिष्ठा को तुच्छ समझा। जब सारी बिरादरी मुझे दूध की मक्खी समझ रही है, जब मेरे विषय में नाना प्रकार के अपवाद फैले हुए हैं, जब मैं विधर्मी, नास्तिक और जातिच्युत समझा जा रहा हूँ, तब एक धार्मिक-वृत्ति की महिला का मुझसे विमुख हो जाना सर्वथा स्वाभाविक था। न जाने कितनी हृदय-वेदना, कितने आत्मिक कष्ट और मानसिक उत्ताप के बाद आज इस अबला ने ऐसा भयंकर संकल्प किया है।
श्रद्धा कई मिनट तक जलतट पर चुपचाप खड़ी रही। तब वह धीरे-धीरे पानी में उतरी। प्रेमशंकर ने देखा अब विलम्ब करने का अवसर नहीं है। उन्होंने एक छलाँग मारी और अन्तिम सीढ़ी पर खड़े हो कर श्रद्धा को जोर से पकड़ लिया। श्रद्धा चौंक पड़ी, सशंक होकर बोली– कौन है, दूर हट!
प्रेमशंकर ने सदोष नेत्रों से देख कर कहा, मैं हूँ अभागा प्रेमशंकर! श्रद्धा ने पति की ओर ध्यान से देखा भयभीत हो कर बोली, आप...यहाँ?
प्रेमशंकर– हाँ, आज अदालत ने मुझे बरी कर दिया। चचा साहब के यहाँ दावत थी। भोजन करके निकला तो तुम्हें आते देखा। साथ हो लिया। अब ईश्वर के लिए पानी से निकलो। मुझ पर दया करो।
श्रद्धा पानी से निकलकर जीने पर आयी और कर जोड़कर गंगा को देखती हुई बोली माता, तुमने मेरी विनती सुन ली, किस मुँह से तुम्हारा यश गाऊँ। इस अभागिन को तुमने तार दिया।
|