सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
प्रेम– तुम अँधेरे में इतनी दूर कैसे चली आयी? डर नहीं लगा?
श्रद्धा– मैं तो यहाँ कई दिनों से आती हूँ, डर किस बात का?
प्रेम– क्या यहाँ के बदमाशों का हाल नहीं जानती?
श्रद्धा ने कमर से छुरा निकाल लिया और बोली, मेरी रक्षा के लिए यह काफी है। संसार में जब दूसरा कोई सहारा नहीं होता तो आदमी निर्भय हो जाता है।
प्रेम– घर के लोग तुम्हें यों आते देख कर अपने मन में क्या कहते होंगे?
श्रद्धा– जो चाहे समझें, किसी के मन पर मेरा क्या वश है? पहले लोकलाज का भय था । अब वह भय नहीं रहा, उसका मर्म जान गयी। वह रेशम का जाल है, देखने में सुन्दर, किन्तु कितना जटिल। वह बहुधा धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म बना देता है।
प्रेमशंकर का हृदय उछलने लगा, बोले, ईश्वर, मेरा क्या भाग्य-चन्द्र फिर उदित होगा? श्रद्धा, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि मेरी कितनी ही बार इच्छा हुई कि फिर अमेरिका लौट जाऊँ, किन्तु आशा का एक अत्यन्त सूक्ष्म काल्पनिक बन्धन पैरों में बेड़ियों का काम करता रहा। मैं सदैव अपने चारों ओर तुम्हारे प्रेम और सत्य व्रत को फैले हुए देखता हूँ। मेरे आत्मिक अन्धकार में यही ज्योति दीपक का काम देती है। मैं तुम्हारी सदिच्छाओं को किसी सधन वृक्ष की भाँति अपने ऊपर छाया डालते हुए अनुभव करता हूँ। मुझे तुम्हारी अकृपा में दया, तुम्हारी निष्ठुरता में हार्दिक स्नेह, तुम्हारी भक्ति में अनुराग छिपा हुआ दीखता है। अब मुझे ज्ञात हुआ है कि मेरे ही उद्धार के लिए तुम अनुष्ठान कर रही हो। यदि मेरा प्रेम निष्काम होता तो मैं इस आत्मिक संयोग पर ही सन्तोष करता, किन्तु मैं रूप और रस का दास हूँ, इच्छाओं और वासनाओं का गुलाम, मुझे इस आत्मनुराग से संतोष नहीं होता।
श्रद्धा– मेरे मन से वह शंका कभी दूर नहीं होती कि आपसे मेरा मिलना अधर्म है और अधर्म से मेरा हृदय काँप उठता है।
प्रेम– यह शंका कैसे शान्त होगी?
श्रद्धा– आप जान कर मुझसे क्यों पूछते हैं?
प्रेम– तुम्हारे मुँह से सुनना चाहता हूँ।
श्रद्धा– प्रायश्चित से।
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