सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
तेज– चचा साहब! आप यहाँ इस वक्त कैसे आये?
पद्म– मुझे तो ऐसी शंका हुई कि कोई प्रेत आ गया है।
प्रेम– तुम लोग इस पाखण्ड में पड़कर अपना समय व्यर्थ गँवा रहे हो। बड़े जोखिम का काम है और तत्त्व कुछ नहीं। इन मन्त्रों को जगाकर तुम जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। चित्त लगाकर पढ़ो, उद्योग करो। सच्चरित्र बनो। धन और कीर्ति का यही महामन्त्र है। यहाँ से उठो।
तीनों आदमी घर की ओर चले। रास्ते-भर प्रेमशंकर दोनों शिकारों को समझाते रहे। घर पहुँचकर वे फिर निद्रा देवी को आराधना करने लगे। मच्छरों की जगह जब उनके सामने एक बाधा आ खड़ी हुई। यह श्रद्धा का अन्तिम वाक्य था, ‘तुम्हारे चित्त से अभी अहंकार नहीं मिटा।’ प्रेमशंकर बड़ी निर्दयता से अपने कृत्यों का समीक्षण कर रहे थे। अपने अन्तःकरण के एक-एक परदे को खोलकर देख रहे थे और प्रतिक्षण उन्हें विश्वास होता जाता था कि मैं वास्तव में अहंकार का पुतला हूँ। वह अपने किसी काम को, किसी संकल्प को अहंकार-रहित न पाते थे। उनकी दया और दीन-भक्ति में भी अहंकार छिपा हुआ जान पड़ता था। उन्हें शंका हो रही थी, क्या सिद्धान्त-प्रेम अहंकार का दूसरा स्वरूप है। इसके विपरीत श्रद्धा की धर्मपरायणता में अहंकार की गन्ध तक न थी।
इतने में ज्वालासिंह ने आकर कहा, क्या सोते ही रहिएगा? सबेरा हो गया था।
प्रेमशंकर ने चौंककर द्वार की ओर देखा तो वास्तव में दिन निकल आया था। बोले मुझे तो मच्छरों के मारे नींद नहीं आयी! आँखें तक न झपकीं।
ज्वाला– और यहाँ एक ही करवट में भोर हो गया।
प्रेमशंकर उठकर हाथ-मुँह धोने लगे। आज उन्हें बहुत काम करना था। ज्वालासिंह भी स्नानादि से निवृत्त हुए। अभी दोनों आदमी कपड़े पहन ही रहे थे कि तेजशंकर जलपान के लिए ताजा हलुआ, सेब का मुरब्बा, तले हुए पिस्ते और बादाम तथा गर्म दूध लाया ज्वालासिंह ने कहा, आपके चचा साहब बड़े मेहमाँनवाज आदमी हैं। ऐसा जान पड़ता है कि आतिथ्य-सत्कार में उन्हें हार्दिक आनन्द आता है और एक हम हैं कि मेहमान की सूरत देखते ही मानो दब जाते हैं। उनका जो कुछ सत्कार करते हैं वह प्रथा-पालन के लिए, मन से यही चाहते हैं कि किसी तरह यह ब्याधि सिर से टले।
प्रेम– वे पवित्र आत्माएँ अब संसार से उठती जाती हैं। अब तो जिधर देखिए उधर स्वार्थ-सेवा का आधिपत्य है। चचा साहब जैसा भोजन करते हैं, वैसा अच्छे-अच्छे रईसों को भी मयस्सर नहीं होता। वह स्वयं पाक-शास्त्र में निपुण हैं। लेकिन खाने का इतना शौक नहीं है जितना खिलाने का। मेरा तो जी चाहता है कि अवकाश मिले तो यह विद्या उनसे सीखूँ।
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