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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


दोनों मित्रों ने जलपान किया और लाला प्रभाशंकर से विदा होकर घर से निकले। ज्वालासिंह ने कहा, कोई वकील ठीक करना चाहिए।

प्रेम– हाँ, यही सबसे जरूरी काम है। देखें, कोई महाशय मिलते हैं या नहीं। चचा साहब को तो लोगों ने साफ जवाब दे दिया।

ज्वाला– डॉक्टर इर्फान अली से मेरा खूब परिचय है। आइए, पहले वहीं चलें।

प्रेम– वह तो शायद ही राजी हों। ज्ञानशंकर से उनकी बातचीत पहले ही हो चुकी है।

ज्वाला– अभी वकालतनामा तो दाखिल नहीं हुआ। ज्ञानशंकर ऐसे नादान नहीं हैं कि ख्वाहमख्वाह हजारों रुपयों का खर्च उठायें। उनकी जो इच्छा थी वह पुलिस के हाथों पूरी हुई जाती है। सारा लखनपुर चक्कर में फँस गया। अब उन्हें वकील रख कर क्या करना है?

डॉक्टर महोदय अपने बाग में टहल रहे थे। दोनों सज्जनों को देखते ही बढ़कर हाथ मिलाया और बँगले में ले गये।

डॉक्टर– (ज्वालासिंह से) आपसे तो एक मुद्दत के बाद मुलाकात हुई है। आजकल तो आप हरदोई में हैं न? आपके बयान ने तो पुलिसवालों की बोलती ही बन्द कर दी। मगर याद रखिए, इसका परिणाम आप को उठाना पड़ेगा।

ज्वाला– उसकी नौबत ही न आयेगी। इन दोरंगी चालों से नफरत हो गयी। इस्तीफा देने का फैसला कर चुका हूँ।

डॉक्टर– हालत ही ऐसी है कि खुद्दार आदमी उसे गवारा नहीं कर सकता। बस यहाँ उन लोगों की चाँदी है जिनके कान्शस मुरदा हो गये हैं। मेरे पेशे को लीजिए, कहा जाता है कि यह आजाद पेशा है। लेकिन लाला प्रभाशंकर को सारे शहर में (प्रेमशंकर की तरफ देख कर) आपकी पैरवी करने के लिए कोई वकील न मिला। मालूम नहीं, वह मेरे यहाँ तशरीफ क्यों नहीं लाये।

ज्वाला– उस गलती की तलाफी (प्रायश्चित) करने के लिए हम लोग हाजिर हुए हैं। गरीब किसानों पर आपको रहम करना पड़ेगा।

डॉक्टर– मैं इस ख़िदमत के लिए हाजिर हूँ। पुलिस से मेरी दुश्मनी है। ऐसे मुकदमों की मुझे तलाश रहती है। बस, यही मेरा आखिरी मुकदमा होगा। मुझे भी वकालत से नफरत हो गयी है। मैंने युनिवर्सिटी में दरख्वास्त दी है। मंजूर हो गयी तो बोरिया-बँधना समेटकर उधर की राह लूँगा।

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