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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


इर्फान– जरूरत पड़ने पर क्या आप अपने घोड़े के आगे घास नहीं डाल देते? इस लिहाज से आप अपने को साईस कहलाना पसन्द करेंगे?

तहसीलदार– मेरी हालत का उन काश्ताकारों से मुकाबला नहीं हो सकता।

इर्फान– बहरहाल यह आपको मानना पड़ेगा कि जो लोग जिस काम के आदी नहीं हैं वह उसे करना अपनी जिल्लत समझते हैं, उनसे यह काम लेना बेइन्साफी है। कोई बरहमन खुशी से आपके बर्तन धोयेगा। अगर आप उससे जबरन यह काम लें तो वह चाहें खौफ से करे पर उसका दिल जख्मी हो जायेगा। वह मौका पायेगा तो आपकी शिकायत करेगा।

तहसीलदार– हाँ, आपका यह फरमाना वजा है, लेकिन कभी-कभी अफसरों को मजबूर हो कर सभी कुछ करना पड़ता है।

इर्फान– तो आपको ऐसी हालतों में नामुलायम बातें सुनने के लिए भी तैयार रहना चाहिये। फिर लखनपुर वालों पर इलजाम रखते हैं, यह इनसाफी फिकरत का कसूर है। अब तो आप तसलीम करेंगे कि काश्तकारों से जो बेअदबी हुई वह आपकी ज्यादती का नतीजा था।

तहसीलदार– अफसरों की आसाइश के लिए...

तहसीलदार साहब का आशय समझ कर जज ने उन्हें रोक दिया।

इर्फान अली जब संध्या समय घर पहुँचें तब उन्हेंबाबू ज्ञानशंकर का अर्जेंट तार मिला। उन्होंने एक जरूरी मुकदमें की पैरवी करने के लिए बुलाया था। एक हजार रुपये रोजाना मेहनताना का वादा था। डॉक्टर साहब ने तार फाड़ फेंक दिया और तत्क्षण तार से जवाब दिया– खेद हैं मुझे फुर्सत नहीं है। मैं लखनपुर के मामले की पैरवी कर रहा हूँ।

५४

गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलती सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए साधुओं पर विश्वास क्यों किया और उनको अपने रुपयों की थैली क्यों दिखायी? उसी पथिक की भाँति अब वह प्रत्येक बटोही को आशंकित नेत्रों से देखती थी। यह विडम्बना उसके लिए सहस्रों उपदेशों से अधिक शिक्षाप्रद और सजगकारी थी। अब उसे याद आया था कि एक साधु ने मुझे प्रसाद खिलाया था। जरा दूर चलकर मुझे प्यास लगी तो उसने मुझे शर्बत पिलाया, जो तृषित होने के कारण मैंने पेट भर पिया। अब उसे यह भी ज्ञात हो रहा था कि वह प्यास उसी प्रसाद का फल था। ज्यों-ज्यों वह उस घटना पर विचार करती थी, उसके सभी रहस्य, कारण और कार्य सूत्र में बँधे हुए मालूम होते थे। गायत्री ने अपने आभूषण तो बनारस में ही उतार कर श्रद्धा को सौंप दिये थे, अब उसने रंगीन कपड़े भी त्याग दिये। पान खाने का शौक था। उसे भी छोड़ा। आईने और कंघी को त्रिवेणी में डाल दिया। रुचिकर भोजन को तिलांजलि दी।

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