सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
सूरदास–पंडाजी, तुम्हें दिल्लगी सूझी है और यहां मुख में कालिख लगाई जा रही है। अंधा था, अपाहिज था, भिखारी था, नीच था, चोरी-बदमासी के इल्जाम से तो बचा हुआ था ! आज वह इज्जाम भी लग गया।
बजरंगी–आदमी जैसा आप है, वैसा ही दूसरों को समझता है।
भैरों–तुम कहां के बड़े साधु हो। अभी आज ही लाठी चलाकर आए हो। मैं दो साल से देख रहा हूं, मेरी घरवाली इससे आकर अकेले में घंटो बातें करती है। जगधर ने भी उसे यहां से रात को आते देखा है। आज ही, अभी, उसके पीछे मुझसे लड़ने को तैयार था।
नायकराम–सुभा होने की बात ही है। अंधा आदमी देवता थोड़े ही होता है, और फिर देवता लोग भी तो काम के तीर से नहीं बचे। सूरदास तो फिर भी आदमी है, और अभी उमर ही क्या है?
ठाकुरदीन–महाराज, क्यों अंधे के पीछे पड़े हुए हो। चलो, कुछ भजन-भाव हो।
नायकराम–तुम्हें भजन-भाव सूझता है, यहां एक भले आदमी की इज्जत का मुआमला आ पड़ा है। भैरों, हमारी एक बात मानो, तो कहें। तुम सुभागी को मारते बहुत हो, इससे उसका मन तुमसे नहीं मिलता। अभी दूसरे दिन बारी आती है, अब महीने में दो बार से ज्यादा न आने पाए।
भैरों देख रहा था कि मुझे लोग बना रहे हैं। तिनककर बोला–अपनी मेहरिया है, मारते-पीटते हैं, तो किसी का साझा है? जो घोड़ी पर कभी सवार ही नहीं हुआ, वह दूसरों को सवार होना क्या सिखाएगा? वह क्या जाने, औरत कैसे काबू में रहती है?
यह व्यंग नायकराम पर था, जिसका अभी तक विवाह नहीं हुआ था। घर में धन था, यजमानों की बदौलत किसी बात की चिंता न थी, किंतु न जाने क्यों अभी तक उसका विवाह नहीं हुआ था। वह हजार-पांच सौ रुपए से गम खाने को तैयार था; पर कहीं शिक्का न जमता था। भैरों ने समझा था, नायकराम दिल में कट जाएंगे; मगर वह छंटा हुआ शहरी गुंडा ऐसे व्यंगों को कब ध्यान में लाता था। बोला–कहो बजरंगी इसका कुछ जवाब दो औरत कैसे बस में रहती है?
बजरंगी–मार-पीट से नन्हा-सा लड़का तो बस में आता नहीं, औरत क्या बस में आएगी।
भैरों–बस में आए औरत का बाप, औरत किस खेत की मूली है ! मार से भूत भागता है।
बजरंगी–तो औरत भी भाग जाएगी, लेकिन काबू में न आएगी?
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