सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
नायकराम–बहुत अच्छी कहीं बजरंगी, बहुत पक्की कही, वाह-वाह ! मार से भूत भागता है, तो औरत भी भाग जाएगी। अब तो कट गई तुम्हारी बात?
भैरों–बात क्या कट जाएगी, दिल्लगी है? चूने को जितना ही कूटो उतना ही चिमटता है।
जगधर–ये सब कहने की बातें हैं। औरत अपने मन से बस में आती है, और किसी तरह नहीं।
नायकराम–क्यों बजरंगी, नहीं है कोई जवाब?
ठाकुरदीन–पंडाजी, तुम दोनों को लड़ाकर ही दम लोगे; बिचारे अपाहिज आदमी के पीछे पड़े हो।
नायकराम–तुम सूरदास को क्या समझते हो, यह देखने ही में इतने दुबले हैं। अभी हाथ मिलाओ, तो मालूम हो। भैरों, अगर इन्हें पछाड़ दो, तो पांच रुपए इनाम दूं।
भैरों–निकल जाओगे।
नायकराम–निकलनेवाले को कुछ कहता हूं। यह देखो, ठाकुरदीन के हाथ में रखे देता हूं।
जगधर–क्या ताकते हो भैरों, ले पड़ो।
सूरदास–मैं नहीं लड़ता।
नायकराम–सूरदास देखो, नाम-हंसाई मत कराओ। मर्द होकर लड़ने से डरते हो? हार ही जाओगे या और कुछ !
सूरदास–लेकिन भाई, मैं पेंच-पाच नहीं जानता। पीछे से यह न कहना, हाथ क्यों पकड़ा। मैं जैसे चाहूंगा, वैसे लडूंगा।
जगधर–हां-हां, तुम जैसे चाहो, वैसे लड़ना।
सूरदास–अच्छा तो आओ, कौन आता है !
नायकराम–अंधे आदमी का जीवट देखना। चलो भैरों, आओ मैदान में।
भैरों–अंधे से क्या लडूंगा !
नायकराम–बस, इसी पर इतना अकड़ते थे?
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