सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
जगधर–निकल आओ भैरों, एक झपट्टे में तो मार लोगे !
भैरों–तुम्हीं क्यों नहीं लड़ जाते, तुम्हीं इनाम ले लेना।
जगधर को रुपयों की नित्य चिंता रहती थी। परिवार बड़ा होने के कारण किसी तरह चूल न बैठती थी, घर में एक-न-एक चीज घटी ही रहती थी। धनोपार्जन के किसी उपाय को हाथ से न छोड़ना चाहता था। बोला–क्यों सूरे, हमसे लड़ोगे?
सूरदास–तुम्हीं आ जाओ, कोई सही।
जगधर–क्यों पंडाजी, इनाम दोगे न?
नायकराम–इनाम तो भैरों के लिए था, लेकिन कोई हरज नहीं ! हां, शर्त यह है कि एक ही झपट्टे में गिरा दो।
जगधर ने धोती ऊपर चढ़ा ली और सूरदास से लिपट गया। सूरदास ने उसकी एक टांग पकड़ ली और इतनी जोर से खींचा कि जगधर धम से गिर पड़ा। चारों तरफ से तालियाँ बजने लगीं।
बजरंगी बोला–वाह, सूरदास, वाह ! नायकराम ने दौड़कर उसकी पीठ ठोंकी।
भैरों–मुझे तो कहते थे, एक ही झपटे में गिरा दोगे, तुम कैसे गिर गए?
जगधर–सूरे ने टांग पकड़ ली, नहीं तो क्या गिरा लेते। वह अडंगा मारता कि चारों खाने चित गिरते।
नायकराम–अच्छा, तो एक बाजी और हो जाए।
जगधर–हां-हां, अबकी देखना।
दोनों योद्धाओं में फिर मल्ल-युद्ध होने लगा। सूरदास ने अबकी जगधर का हाथ पकड़कर इतने जोर से ऐंठा कि वह ‘आह ! आह !’ करता हुआ जमीन पर बैठ गया। सूरदास ने तुरंत उसका हाथ छोड़ दिया और गरदन पकड़कर दोनों हाथों से ऐसा दबोचा कि जगधर की आंखें निकल आईं; नायकराम ने दौड़कर सूरदास को हटा लिया। बजरंगी ने जगधर को उठाकर बिठाया और हवा करने लगा।
भैरों ने बिगड़कर कहा–यह कोई कुश्ती है कि जहां पकड़ पाया, वहीं धर दबाया। यह तो गंवारों की लड़ाई है, कुश्ती थोड़े ही है।
नायकराम–यह बात तो पहले तय हो चुकी थी।
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