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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


बजरंगी को चिंता लगी हुई थी–आज की मार-पीट का न जाने क्या फल हो? कल पुलिस द्वार पर आ जाएगी। गुस्सा हराम होता है। नायकराम ने आश्वासन दिया–भले आदमी, पुलिस से क्या डरते हो? कहो, थानेदार को बुलाकर नचाऊं, कहो इंस्पेक्टर को बुलाकर चपतियाऊं। निश्चिंत बैठे रहो, कुछ न होने पाएगा। तुम्हारा बाल भी बांका हो जाए, तो मेरा जिम्मा।

तीनों आदमी यहां से चले। दयागिरि पहले ही से इनकी राह देख रहे थे। कई गाड़ीवान और बनिए भी आ बैठे थे। जरा देर में भजन की तानें उठने लगीं। सूरदास अपनी चिंताओं को भूल गया, मस्त होकर गाने लगा। कभी भक्ति से विह्वल होकर नाचता, उछलने-कूदने लगता, कभी रोता, कभी हंसता। सभा विसर्जित हुई तो सभी प्राणी प्रसन्न थे, सबके हृदय निर्मल हो गए थे, मलिनता मिट गई थी, मानो किसी रमणीक स्थान की सैर करके आए हों। सूरदास तो मंदिर के चबूतरे ही पर लेटा और लोग अपने-अपने घर गए। किंतु थोड़ी ही देर बाद सूरदास को फिर उन्हीं चिंताओं ने आ घेरा–मैं क्या जानता था कि भैरों के मन में मेरी ओर से इतना मैल है, नहीं तो सुभागी को अपने झोंपड़े में आने ही क्यों देता। जो सुनेगा, वही मुझ पर थूकेगा। लोगों को ऐसी बातों पर कितनी जल्द विश्वास आ जाता है। मुहल्ले में कोई अपने दरवाजे पर खड़ा न होने देगा। ऊंह ! भगवान तो सबके मन की बात जानते हैं। आदमी का धरम है कि किसी को दुःख में देखे, तो उसे तसल्ली दे। अगर अपना धरम पालने में भी कलंक लगता है, तो लगे, बला से। इसके लिए कहां तक रोऊं? कभी-न-कभी तो लोगों को मेरे मन का हाल मालूम हो ही जाएगा।

किंतु जगधर और भैरों दोनों के मन में ईर्ष्या का फोड़ा पक रहा था। जगधर कहता था–मैंने तो समझा था, सहज में पांच रुपए मिल जाएंगे, नहीं तो क्या कुत्ते ने काटा था कि उससे भिड़ने जाता? आदमी काहे का है, लोहा है।

भैरों–मैं उसकी ताकत की परीक्षा कर चुका हूं। ठाकुरदीन सच कहता है, उसे किसी देवता का इष्ट है।

जगधर–इष्ट-विष्ट कुछ नहीं है, यह सब बेफिकरी है। हम-तुम गृहस्थी के जंजाल में फंसे हुए हैं, नोन-तेल-लकड़ी की चिंता सिर पर सवार रहती है, घाटे-नफे के फेर में पड़े रहते हैं। उसे कौन चिंता है? मजे से जो कुछ मिल जाता है, खाता है और मीठी नींद सोता है। हमको-तुमको रोटी-दाल भी दोनों जून नसीब नहीं होती है। उसे क्या कमी है, किसी ने चावल दिए, कहीं मिठाई पा गया, घी-दूध बजरंगी के घर से मिल ही जाता है। बल तो खाने से होता है।

भैरों–नहीं, यह बात नहीं। नसा खाने से बल का नास हो जाता है।

जगधर–कैसी उल्टी बातें करते हो; ऐसा होता, तो फौज में गोरों को बारांडी क्यों पिलाई जाती? अंगरेज सभी शराब पीते हैं, तो क्या कमजोर होते हैं?

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