सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
तड़का हो गया, सूरदास अब राख के ढेर को बटोरकर एक जगह कर रहा था। आशा से ज्यादा दीर्घजीवी और कोई वस्तु नहीं होती।
उसी समय जगधर आकर बोला–सूरे, सच कहना, तुम्हें मुझ पर तो सुभा नहीं है?
सूरे को सुभा तो था, पर उसने इसे छिपाकर कहा–तुम्हारे ऊपर क्यों सुभा करूंगा? तुझसे मेरी कौन-सी अदावत थी?
जगधर–मुहल्लेवाले तुम्हें भड़काएंगे, पर मैं भगवान से कहता हूं, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता।
सूरदास–अब तो जो कुछ होना था, हो चुका। कौन जाने, किसी ने लगा दी, या किसी की चिलम से उड़कर लग गई? यह भी तो हो सकता है कि चूल्हें में आग रह गई हो। बिना जाने-बूझे किस पर सुभा करूं?
जगधर–इसी से तुम्हें चिता दिया कि कहीं सुभे में मैं न मारा जाऊं।
सूरदास–तुम्हारी तरफ से मेरा दिल साफ है।
जगधर को भैरों की बातों से अब यह विश्वास हो गया कि उसी की शरारत है। उसने सूरदास को रुलाने की बात कही थी। उस धमकी को इस तरह पूरा किया। वह वहां से सीधे भैरों के पास गया। वह चुपचाप बैठा नारियल का हुक्का पी रहा था, पर मुख से चिंता और घबराहट झलक रही थी। जगधर को देखते ही बोला–कुछ सुना; लोग क्या बातचीत कर रहे हैं?
जगधर–सब लोग तुम्हारे ऊपर सुभा करते हैं। नायकराम की धमकी तो तुमने अपने कानों से सुनी।
भैरों–यहां ऐसी धमकियों की परवा नहीं है। सबूत क्या है कि मैंने लगाई?
जगधर–सच कहो, तुम्हीं ने लगाई?
भैरों–हां, चुपके से एक दियासलाई लगा दी।
जगधर–मैं कुछ-कुछ पहले ही समझ गया था; पर यह तुमने बुरा किया। झोंपड़ी जलाने से क्या मिला? दो-चार दिन में फिर दूसरी झोंपड़ी तैयार हो जाएगी।
भैरों–कुछ हो, दिल की आग तो ठंडी हो गई ! यह देखो !
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