सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
यह कहकर उसने एक थैली दिखाई, जिसका रंग धुएं से काला हो गया था। जगधर ने उत्सुक होकर पूछा–इसमें क्या है? अरे ! इसमें तो रुपए भरे हुए हैं।
भैरों–यह सुभागी को बहका ले जाने का जरीबाना है।
जगधर–सच बताओ, ये रुपए कहां मिले?
भैरों–उसी झोंपड़े में। बड़े जतन से धरन की आड़ में रखे हुए थे। पाजी रोज राहगीरों को ठग-ठगकर पैसे लाता था, और इसी थैली में रखता था। मैंने गिने हैं। पांच सौ से ऊपर हैं। न जाने कैसे इतने रुपए जमा हो गए ! बच्चू को इन्हीं रुपयों की गरमी थी। अब गरमी निकल गई। अब देखूं किस बल पर उछलते हैं। बिरादरी को भोज-भात देने का सामान हो गया। नहीं तो, इस बखत रुपए कहां मिलते? आजकल तो देखते ही हो, बल्लमटेरों के मारे बिकरी कितनी मंदी है।
जगधर–मेरी तो सलाह है कि रुपए उसे लौटा दो। बड़ी मसक्कत की कमाई है। हजम न होगी।
जगधर दिल का खोटा आदमी नहीं था; पर इस समय उसने यह सलाह उसे नेकनीयती से नहीं, हसद से दी थी। उसे यह असह्य थी कि भैरों के हाथ इतने रुपए लग जाएं। भैरों आधे रुपए उसे देता, तो शायद उसे तस्कीन हो जाती; पर भैरों से यह आशा न की जा सकती थी। बेपरवाही से बोला–मुझे अच्छी तरह हजम हो जाएगी। हाथ में आए हुए रुपए को नहीं लौटा सकता। उसने तो भीख मांगकर जमा किए हैं, गेहूं तो नहीं तौला था।
जगधर–पुलिस सब खा जाएगी।
भैरों–सूरे पुलिस में न जाएगा। रो-रोकर चुप हो जाएगा।
जगधर–गरीब की हाय बड़ी जान-लेवा होती है।
भैरों–वह गरीब है ! अंधा होने से ही गरीब हो गया? जो आदमी दूसरों की औरतों पर डोरे डाले, जिसके पास सैकड़ों रुपए जमा हों, जो दूसरों को रुपए उधार देता हो, वह गरीब है? गरीब जो कहो, तो हम-तुम हैं। घर में ढूंढ़ आओ, एक पूरा रुपया न निकलेगा। ऐसे पापियों को गरीब नहीं कहते। अब भी मेरे दिल का कांटा नहीं निकला। जब तक उसे रोते न देखूंगा, यह कांटा न निकलेगा। जिसने मेरी आबरू बिगाड़ दी, उसके साथ जो चाहे करूं, मुझे पाप नहीं लग सकता।
जगधर का मन आज खोंचा लेकर गलियों का चक्कर लगाने में न लगा। छाती पर सांप लोट रहा था–इसे दम-के-दम में इतने रुपए मिल गए, अब मौज उड़ाएगा। तकदीर उस तरह खुलती है। यहां कभी पड़ा हुआ पैसा भी न मिला। पाप-पुन्न की कोई बात नहीं। मैं ही कौन दिन-भर पुन्न किया करता हूं? दमड़ी-छदाम-कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूं ! बाट खोटे रखता हूं, तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचता हूं। ईमान गंवाने पर भी कुछ नहीं लगता। जानता हूं, यह बुरा काम है; पर बाल-बच्चों को पालना भी तो जरूरी है। इसने ईमान खोया, तो कुछ लेकर खोया, गुनाह बेलज्जत नहीं रहा। अब दो-तीन दुकानों का और ठेका ले लेगा। ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ जाता, तो जिंदगानी सुफल हो जाती।
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