लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

269 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


फत्तू– काकी, गाती ही रहेगी?

सलोनी– जा तुझसे नहीं बोलती। तू भी डर गया।

फत्तू– काकी, इन सभी से कौन लड़ता? इजलास पर जाकर जो सच्ची बात है वह कह दूंगा।

मंगरू– पुलिस के सामने जमींदार कोई चीज नहीं।

सलोनी– सच्चाई के सामने जमींदार, सरकार कोई चीज नहीं।

मंगरू– सच बोलने में निबाह नहीं है।

हरदास– सच्चे की गर्दन सभी जगह मारी जाती है।

सलोनी– अपना धर्म तो नहीं बिगड़ता। तुम सब कायर हो। तुम्हारा मुंह देखना पाप है। मेरे सामने से हट जाओ।

[प्रस्थान]

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book