नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
दूसरा दृश्य
[स्थान– सबलसिंह का कमरा, समय– दस बजे दिन।]
सबल– (घड़ी की तरफ देखकर) दस बज गये। हलधर ने अपना काम पूरा कर लिया। वह नौ बजे तक गंगा से लौट आते थे। कभी इतनी देर न होती थी। अब राजेश्वरी फिर मेरी हुई। चाहें ओढ़ूं बिछाऊं या गले का हार बनाऊं। प्रेम के हाथों यह दिन देखने की नौबत आयेगी, इसकी, मुझे जरा भी शंका न थी। भाई की हत्या की कल्पना मात्र से ही रोये खड़े हो जाते हैं। इस कुल का सर्वनाश होने वाला है। कुछ ऐसे ही लक्षण दिखायी देते हैं। कितना उदार, कितना सच्चा! मुझसे कितना प्रेम, कितनी श्रद्धा थी। पर हो ही क्या सकता था? एक म्यान में दो तलवारें कैसे रह सकती थी? संसार में प्रेम ही वह वस्तु है जिसके हिस्से नहीं हो सकते। यह अनौचित्य की पराकाष्ठा थी कि मेरा छोटा भाई, जिसे मैंने सदैव अपना पुत्र समझा, मेरे साथ वह पैशाचिक व्यवहार करे। कोई देवता भी यह अमर्यादा नहीं कर सकता था। यह घोर अपमान! इसका परिणाम और क्या होता? यही आपत्ति धर्म था। इसके लिए पछताना व्यर्थ है (एक क्षण के बाद) जी नहीं मानता, वही बातें याद आती हैं। मैंने कंचन की हत्या क्यों करायी? मुझे स्वयं अपने प्राण देने चाहिए थे। मैं तो दुनिया का सुख भोग चुका था! स्त्री, पुत्र, सबका सुख पा चुका था। उसे तो अभी दुनिया की हवा तक न लगी थी। उपासना और आराधना ही उसकी एक-मात्र जीवनधारा थी। मैंने बड़ा अत्याचार किया।
[अचलसिंह का प्रवेश]
अचल– बाबूजी, अब तक चाचा जी गंगा स्नान करके नहीं आये?
सबल– हां देर तो हुई। अब तक तो आ जाते थे।
अचल– किसी को भेजिए, जाकर देख आये।
सबल– किसी से मिलने चले गये होंगे।
अचल– मुझे तो जाने क्यों डर लग रहा है। आजकल गंगा जी बढ़ रही है।
[सबलसिंह कुछ जवाब नहीं देते।]
अचल– वह तैरने दूर निकल जाते थे।
[सबल चुप रहते हैं।]
सबल– आज जब वह नहाने जाते थे तो न जाने क्यों मुझे देखकर उनकी आंखें भर गयी थी। मुझे प्यार करके कहा था, ईश्वर तुम्हें चिरंजीवी करें। इस तरह तो कभी आशीष नहीं देते थे।
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