नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
[सबल रो पड़ते हैं और वहां से उठ कर बाहर बरामदे में चले जाते हैं। अचल कंचनसिंह के कमरे की ओर जाता है।]
सबल– (मन में) अब पछताने से क्या फायदा? जो कुछ होना था हो चुका। मालूम हो गया कि काम के आवेग में बुद्धि, विद्या, विवेक सब साथ छोड़ देते हैं। यही भावी थी, यही होनहार था, यही विधाता की इच्छा थी। राजेश्वरी तुझे ईश्वर ने क्यों इतनी रूप-गुण शील बनाया? पहले-पहले जब मैंने तुझसे बात की थी, तूने मेरा तिरस्कार क्यों न किया, मुझे शब्द क्यों न सुनाये? मुझे कुत्ते की भांति दुत्कार क्यों न दिया? मैं अपने को बड़ा सत्यवादी समझा करता था। पर पहले ही झोंके में उखड़ गया, जड़ से उखड़ गया। मुलम्मे को मैं असली रंग समझ रहा था। पहली ही आंच में मुलम्मा उड़ गया। अपनी जान बचाने के लिए मैंने कितनी घोर धूर्तता से काम लिया। मेरी लज्जा, मेरा आत्माभिमान, सबकी क्षति हो गयी! ईश्वर करे, हलधर अपना वार न कर सका हो और मैं कंचन को जीता-जागता आते देखूं। मैं राजेश्वरी से सदैव के लिए नाता तोड़ लूंगा। उसका मुंह तक न देखूंगा। दिल पर जो कुछ बीतेगी झेल लूंगा।
[अधीर होकर बरामदे में निकल आते हैं और रास्ते की ओर टकटकी लगा कर देखते हैं ज्ञानी का प्रवेश।]
ज्ञानी– अभी बाबू जी नहीं आये। ग्यारह बज गये। भोजन ठंडा हो रहा है। कुछ कह नहीं गये, कब तक आयेंगे?
सबल– (कमरे में आकर) मुझसे तो कुछ नहीं कहा।
ज्ञानी– तो आप चल कर भोजन कर लीजिए।
सबल– उन्हें भी आ जाने दो। जब तक तुम लोग भोजन करो।
ज्ञानी– हरज ही क्या है, आप चल कर खा लें। उनका भोजन अलग रखवा दूंगी। दोपहर तो हुआ।
सबल– (मन में) आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने घर पर अकेले भोजन किया हो। ऐसे भोजन करने पर धिक्कार है। भाई का वध कराके मैं भोजन करने जाऊं और स्वादिष्ट पदार्थो का आनंद उठाऊ ऐसे भोजन करने पर लानत है। (प्रकट) अकेले मुझसे भोजन न किया जायेगा।
ज्ञानी– तो किसी को गंगा जी भेज दो। पता लगाये कि क्या बात है। कहां चले गये? मुझे तो याद नहीं आता कि उन्होंने कभी इतनी देर लगायी हो। जरा जाकर उनके कमरे मैं देखूं, मामूली कपड़े पहनकर गये हैं या अचकन-पाजामा भी पहना है।
[जाती है और एक क्षण में लौट आती है।]
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