नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
ज्ञानी– भगवान् मुझे भी यही शंका हो रही है। मुझे भय है कि मेरे पतिदेव स्वयं पश्चात्ताप के आवेग में अपना प्राणांत न कर दें। उन्हें इस समय अपनी दुष्कृत्ति पर अत्यंत ग्लानि हो रही है। आज वह बैठे-बैठे देर तक रोते रहे। इस दुःख और निराशा की दशा में उन्होंने प्राणों का अंत कर दिया तो कुल का सर्वनाश हो जायेगा। इस सर्वनाश से मेरी रक्षा आपके सिवा और कौन कर सकता है? आप जैसा दयालु स्वामी पा कर अब किसकी शरण जाऊँ? ऐसा कोई यत्न कीजिए कि उनका चित्त शांत हो जाए। मैं अपने देवर का जितना आदर और प्रेम करती थी वह मेरा हृदय ही जानता है। मेरे पति भी अपने भाई को पुत्र के समान समझते थे। वैमनस्य का लेश भी न था। पर अब तो जो कुछ होना था हो चुका। उसका शोक जीवन– पर्यंत रहेगा। अब कुल की रक्षा कीजिए। मेरी आपसे यही याचना है।
चेतन– पाप का दंड ईश्वरीय नियम है। उसे कौन भंग कर सकता है?
ज्ञानी– योगीजन चाहें तो ईश्वरीय नियमों को भी झुका सकते हैं।
चेतन– इसका तुझे विश्वास है?
ज्ञानी– हां, महाराज, मुझे पूरा विश्वास है।
चेतन– श्रद्धा है?
ज्ञानी– हां महाराज, पूरी श्रद्धा है।
चेतन– भक्त को अपने गुरु के सामने अपना तन-मन धन सभी समर्पण करना पड़ता है। वही अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के प्राप्त करने का एकमात्र साधन है। भक्त गुरु की बातों पर, उपदेशों पर, व्यवहारों पर कोई शंका नहीं करता। वह अपने गुरु को ईश्वर-तुल्य समझता है। जैसे कोई रोगी अपने को वैद्य के हाथों में छोड़ देता है, उसी भांति भक्त भी अपने शरीर को, अपनी बुद्धि और आत्मा को गुरू के हाथों में छोड़ देता है, तू अपना कल्याण चाहती है तो तुझे भक्तों के धर्म का पालन करना पड़ेगा।
ज्ञानी– महाराज, मैं अपना तन-मन धन सब आपके चरणों पर समर्पण करती हूं।
चेतन– शिष्य का अपने गुरु के साथ आत्म संबंध होता है। उसके और सभी संबंध पार्थिव होते हैं। आत्मिक संबंध के सामने पार्थिव संबंधों का कुछ भी मूल्य नहीं होता। मोक्ष के सामने सांसारिक सुखों का कुछ भी मूल्य नहीं है। मोक्ष-प्राप्ति ही मानव-जीवन का उद्देश्य है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए प्राणी को ममत्व का त्याग करना चाहिए। पिता-माता पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, शत्रु-मित्र यह सभी संबंध पार्थिव हैं। यह सब मोक्षमार्ग की बाधाएं है। इनमें निवृत्त होकर ही मोक्षपद प्राप्त हो सकता है। केवल गुरु की कृपादृष्टि ही उस महान पद पहुंचा सकती है। तू अभी तक भ्रांति में पड़ी हुई है। तू अपने पति और पुत्र, धन और सम्पत्ति को ही जीवन-सर्वस्व समझ रही है। यहीं भ्रांति तेरे दुःख दिखाई देने लगेगा। तब इन सांसारिक सुखों से तेरे मन आप-ही-आप हट जायेगा। तुझे इनकी असारता प्रकट होने लगेगी। मेरा पहला उपदेश यह है कि गुरु ही तेरा सर्वस्व है। मैं ही तेरा सब कुछ हूं।
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