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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


ज्ञानी– (कमंडल से मुंह लगा कर पीती है। तुरंत उसे अपने शरीर में एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव होता है।) स्वामिन, यह तो कोई अलौकिक वस्तु है।

चेतन– प्रिय, उन ऋषियों का पेय पदार्थ है। इसे पीकर वह चिर काल तक तरुण बने रहते थे। उनकी शक्तियां कभी क्षीण नहीं होती थीं। थोड़ा– सा और दो। आज बहुत दिनों के बाद यह शुभ अवसर प्राप्त हुआ है।

ज्ञानी– बोतल उठाकर कमंडल में उड़ेलती है। चेतनदास पी जाते हैं। ज्ञानी स्वयं थोड़ा-सा निकाल कर पीती है।

चेतन– (ज्ञानी के हाथों को पकड़ कर) प्रिये, तुम्हारे हाथ कितने कोमल हैं, ऐसा जान पड़ता है मानो फूल की पंखड़िया हैं। (ज्ञानी झिझक कर हाथ खींच लेती है।) प्रिये, झिझको नहीं, यह वासना-जनित प्रेम नहीं है। यह शुद्ध, पवित्र प्रेम है। यह तुम्हारी दूसरी परीक्षा है।

ज्ञानी– मेरे हृदय में बड़े वेग से धड़कन हो रही है।

चेतन– यह धड़कन नहीं है, विमल प्रेम की तरंगें हैं जो वृक्ष के किनारों से टकरा रही हैं। तुम्हारा शरीर फूल की भांति कोमल है। उस वेग को सहन नहीं कर सकता। इन हाथों के स्पर्श से मुझे वह आनंद मिल रहा है, जिसमें चंद्र का निर्मल प्रकाश, पुष्पों की मनोहर सुगंध, समीर के शीतल मंद झोंके और जल प्रवाह का मधुर गान सभी समाविष्ट हो गये हैं।

ज्ञानी– मुझे चक्कर-सा आ रहा है। जान पड़ता है लहरों में बही जाती हूं।

चेतन– थोड़ा– सा सोमरस और निकालो। संजीवनी है।

ज्ञानी– बोतल से कमंडल में उड़ेलती है, चेतनदास पी जाता है, ज्ञानी भी दो-तीन घूंट पीती है।

चेतन– आज जीवन सफल हो गया। ऐसे सुख के एक क्षण पर समग्र जीवन भेंट कर सकता हूं।

(ज्ञानी के गले में बाहें डाल कर आलिंगन करना चाहता है, ज्ञानी झिझक कर पीछे हट जाती है) प्रिये, यह भक्ति मार्ग की तीसरी परीक्षा है!

[ज्ञानी अलग खड़ी होकर रोती है।]

चेतन– प्रिये...

ज्ञानी– (उच्च स्वर से) कोचवान, गाड़ी लाओ।

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